स्वयं-सिद्धा
स्वयं-सिद्धा
जन्म देते ही चल बसी थी माँ,
कैसे सम्भलेगी बेटी ?
सोच यह पिता दे आया उसे,
अनाथ आश्रम में बच्चों के।
पतली सी काली सी बच्ची,
न पसन्द आती किसी को।
समय बढ़ा आगे गति से अपनी,
बैठी पढ़ती रहती अकेली,
लगती चोट गर तो उफ़ तक न करती,
होता दर्द गर ह्रदय में तो,
न बहने देती उन्हें बन आँसू,
कर देती बन्द उन्हें ह्रदय के भीतर,
की काल कोठरी में।
लगी पढ़ाने बच्चों को,
साथ-साथ पढ़ाई के अपनी,
होता गया परिष्कृत उसका भी ज्ञान,
न खेलते न करते थे जो बात,
अब वही घूमते थे आगे पीछे,
उसके कराने हल सवाल।
सूर्य के रथ पर हो सवार समय,
बढ़
ता गया और बीत गये वर्ष इक्कीस।
हुई स्नातक पाकर स्थान प्रथम
अपने विश्वविद्यालय में।
बन गई वह शान अनाथ आश्रम की,
दी परीक्षा सिविल सेवा की,
किया नाम रौशन उसने,
अनाथ आश्रम का अपने,
संम्पूर्ण देश में,
पाया जो उसने स्थान प्रथम।
ली प्रतीज्ञा उसने विवाह ना कर,
जन सेवा की,
पाती रही अनेकों सम्मान,
परन्तु डटे रहे पाँव सदा धरती पर,
करती रही उत्थान अनाथ बच्चों का,
जन्म न देकर भी थे अनगिनत बच्चे उसके,
माँ न होने पर भी न जाने कितनी थीं माँए उसकी,
कितने वृद्ध पुरूषों की थी मुँहबोली बेटी लाड़ली,
हो परिचित कहानी से उसकी बुलाते थे सभी उसे:
स्वयंसिद्धा