स्वाभिमान आंखें भिगोता है
स्वाभिमान आंखें भिगोता है
नया घर नई
जिम्मेदारियां
बेटी बड़ी हुई तो
उसके विवाह की तैयारियां,
देखने दिखाने की रस्में
पसंद ना पसंद का सिलसिला,
मां बाप भी नहीं समझ पाते उसकी व्यथा ,
बार-बार इंकार का मंजर ,
लोगों के तानों का खंजर,
अगर सिंगल रहने की सोच ले
तो जनाब उसके चरित्र पर सवाल होता है।
अपनों का दर्द शायद दर्द
दूसरों को कहां दर्द होता है?
जब भी अपने
आसपास नजरें दौड़ाते हैं,
बेटियों के सशक्त होने की बातें
सुनकर भी ये दिल रोता है।
चाहे कितना भी पढ़ा लिखा लो
ऊंचे -ऊंचे पदों पर बिठा दो
फिर भी उसके अरमानों का खून होता है,
समझौते की आड़ में उसका
"स्वाभिमान आंखें भिगोता है।"