सुध बुध खो बैठा
सुध बुध खो बैठा
जितनी बार भी कलम उठाता हूँ हर बार स्याही उसका नाम लिख देती है।
न जाने क्या हुआ इसको जो खुद ब खुद यूँ ही चल जाती है।
जितने भी अक्षर बनाये भगवान ने केवल उसके नाम का ही अक्षर ये आँखें पढ़ पाती है।
अजीब सा नशा हुआ है इनको कोई और अक्षर पढ़ना ही नही चाहती है।
हर ध्वनि में कान मेरे उसकी ध्वनि खोजते है और वही मेरे मस्तिष्क तक भेजते है।
कितने दिन हो गए कुछ और सुने हुए, पता नही बाकी कोई ध्वनि कैसे सुनाई पड़ती है।
कदमो को जैसे जादू टोना किया किसी ने चलते है कहीं भी हर बार घर उसके पहुँच जाते है।
बार बार घर उसके जाते अब तो रास्ते ने भी तोबा कर ली है, और अब कदमो की आवाज़ मेरे वो सुनके ही सोए सदियों से जाग जाते है।
मन तो जैसे बावरा हो गया है हर पल बस उसको याद करके चेहरे पे मेरे हंसी बनी रहती है।
कोई और ख्याल आये कई बरस गुजर गए है , बात कोई बुरी तो अब बुरा मान गयी है और मुझसे दूरी बनाए रहती है।
सारा दिन खुद को आइने में देखा करता हूँ और कैसे खुद को बेहतर बना सकूँ यही सोचा करता हूँ।
अब और कोई इरादा बना ही नही पाता , सारे ख्वाब उसके पूरे करने को ही ये मन कहीं लगा रहता है।
अब और ऐसे मैं ज्यादा दिन रह नही सकता, कोई तो उसको समझा दो की अब उसके सिवा कोई और मेरा हो नही सकता।