स्त्री
स्त्री
मर्द तो हमेशा से ही अधूरा रहा है एक स्त्री के बिना,
शायद स्त्री किसी एक के लिए नहीं जीती
वो जीती है हर किसी के लिए
अलग-अलग रूप में... और
वो प्यार बाँटती रही है कई हिस्सों में
कभी बेटी बनकर
तो कभी पत्नी बनकर
तो कभी बहन बनकर
तो कभी माँ बनकर
तो कभी दादी बनकर
तो कभी नानी बनकर
तो कभी मौसी बनकर
तो कभी बुआ बनकर
और इसी रिश्तों में मर्द होते गए पीछे
रहने लगे अकेले
भटकते रहे गली-गली
आवारा सा होकर
क्यों कि खोता गया है
वो हर बार
एक सुंदर प्रेम को
माँ को
बेटी को
बहन को
बुआ को
दादी को
नानी को
ऐसे तमाम रिश्ते को जो
एक स्त्री बिन है अधूरा है।

