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mintu kumar

Abstract

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mintu kumar

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ख़्वाईशें

ख़्वाईशें

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कत्ल कर लेते हैं

हम भी अपनी ख्वाहिशों का


ताकि किसी और को सुकून मिल सके

वो भी समर्पण कर देती है मन का

ताकि मैं खुश रह सकूँ


इन दोनों को खुश करने में

तड़पता रहता है प्यार और

बलि चढ़ती है उम्मीदों की,

इच्छाओं की, एहसासों की,


और दर-किनार हो जाता है शब्द,

अल्फ़ाज़, छंद, बिखरते दिखते है रिश्ते

सोचता रहता है मन।

 

अब किस राह चल पड़ेगा ये द्वंद,

ये विरोध, ये नाराज़गी।


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