स्त्री गाथा
स्त्री गाथा
अंजान इक जहां में उतारा गया मुझे
पहना के सुर्ख जोड़ा सँवारा गया मुझे
आंखों को मूंद कर के गुज़रती चली गयी
जिन रास्तों से जैसे गुज़ारा गया मुझे
आया क़रार दिल को न ज़ुल्मो सितम से तो
लफ़्ज़ों के कुछ शरर से भी मारा गया मुझे
डरने लगा था मुझसे ही मेरा वजूद ,जब
मानिंद एक शय की निहारा गया मुझे
जब उलझनों की हाल से घबरा गयी थी मैं
माज़ी ही मेरा दे के सहारा गया मुझे
आने को हैं हज़ार अभी और मुश्किलें
ये वक़्त आज कर के इशारा गया मुझे
बेटा जो होती जश्न मनाते सभी यहां
बेटी थी,मां की कोख में मारा गया मुझे
लिपटा हो जैसे शम्स की किरणों में माहताब
दिखला के ये ज़री का किनारा गया मुझे।
शरर ,,आग
माजी ,,भूतकाल
