ग़ज़ल
ग़ज़ल
लेके सुकूं की नींद कोई रात न आई
हिस्से में मेरे ख्वाबों की सौग़ात न आई
मिलता रहा था साथ ज़माने का मुझे भी
जब तक कि ज़ुबाँ पे मेरी हक़ बात न आई
यूँ तो ख़ुदा ने मुझको नवाज़ा है सभी कुछ
उल्फ़त की मेरे हिस्से में ख़ैरात न आई
समझेगें भला कैसे मज़ा जीत का कोई
हिस्से में जिनके मात की सौग़ात न आई।
बचती रही हर एक बुराई से अभी तक
लालच में किसी पल भी मेरी ज़ात न आई
फिर बह गए सैलाब में कितनों के ही सब कुछ
इस साल मेरे गांव में बरसात न आई
ग़म जा के कोई देखे ज़रा उनके दिलों का
दहलीज पे जिनकी कभी बारात न आई
क्यों तुझको समझ में मेरी ये बात न आई।