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Gazala Tabassum

Abstract

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Gazala Tabassum

Abstract

ग़ज़ल

ग़ज़ल

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यूँ कहने को तो लकड़ी कट रही है

शजर की नस व हड्डी कट रही है


करम तेरा इलाही, कट रही है

मज़े में ही फ़कीरी कट रही है


मचाएगी तबाही चार सू अब

नदी के तन से मिट्टी कट रही है


हवा महसूस कर ली क़ुदरती

ये अच्छा है कि बिजली कट रही है


चहकते हैं यहां आ के परिंदे

मेरे घर की खमोशी कट रही है


गले से अब लगाया ज़िन्दगी ने

मगर सांसों की रस्सी कट रही है


गरीबी हो रही है बेहाल ग़म से

अमीरों की तो चांदी कट रही है


बदी का पेड़ बढ़ता जा रहा है

मगर नेकी की टहनी कट रही है


जवानी ख़ूब मस्ती में गुजारी

उदासी में बुज़ुर्गी कट रही है।



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