ग़ज़ल
ग़ज़ल
खुश थे हम भी खुशी बनाते हुए
आपको ज़िन्दगी बनाते हुए।
आंखें भर आईं मां की साड़ी को
फाड़ कर ओढ़नी बनाते हुए
ख़ून आंखों में भी उतर आया
चीख़ को खामुशी बनाते हुए
वक़्त को क़ैद कर न पाएगा
उसने सोचा घड़ी बनाते हुए?
मुझको आया ख़्याल पानी का
कागजों पे नदी बनाते हुए
हाथ कांपे थे क्यों मुसव्विर के
फूल की पंखुड़ी बनाते हुए।
देर लगती नहीं है इक पल भी
कत्ल को खुदकुशी बनाते हुए
शर्म आई नहीं ज़रा उनको
इश्क़ को तिश्नगी बनाते हुए
बूंदे शबनम के डालने ही पड़े
फूल पे ताज़गी बनाते हुए।