स्त्री एक सरिता सी
स्त्री एक सरिता सी
मैं एक सरिता सी
बहती कलकल छलछल
मदमाती इठलाती
चलती अनवरत
मेरे अनजान सफ़र में
मिलने आते मुझसे
फूलों लदी शाखाएं
और तीखे शूल भी
सबको करके आलिंगन
मैं बढ़ती चलती सतत
कभी राहें स्वागत करती
खोलती नव मार्ग
कभी चट्टानें आकर
रोक देती मार्ग
न हर्षाकर न घबराकर
ठहरना मुझे आता
जीवन मेरा नित बढ़ता
कर्मपथ पर
और एक दिन
इस अनजान सफ़र का
पूर्णता को पहुँचता
और मैं समर्पित कर देती स्वयं को
एक विशाल सागर के अस्तित्व में।
