सरदूषन
सरदूषन
भोग लिया अब क्यों रोते हो,
जब अरावली पर वॉर हुये थे,
तब क्या तुम क्यों सोते थे,
घिर आये है बादल फिर से,
बरसे या न बरसे पर तरसोगे,
इनसे जहर भरा ही बरसेगा,
अब जब सांसो पर पहरा लगेगा,
अपनी ही छाया से डर जाओगे,
प्यार भरा दिल कोसेगा फिर,
जिस शरद ऋतु का होता स्वागत था,
वहां डरे डरे से छुप कहाँ रहे हो तुम,
क्यों हर बार यही तो रोते हो तुम,
चौराहों पर क्या लिखते हो पर तुम,
पर्यावरण की चिंता छोड़ चलो तुम,
बंद करो ये पाखंड का चलन तुम,
जागो अगली सर्दी से पहले फिर से,
बस अरावली को वापस ले आओ,
और हां वो पेड़ वापस ले आओ,
जो कटे थे तुम्हारे आगे बढ़ने से,
मेरा क्या है में तो यही प्रकति हूँ,
सब मुझसे है और सब मेरा ही है,
शरद शांत मधुर या फिर दूषित हो,
और हां वो चिंता अपनी कर लेना।।