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Manu Paliwal

Others

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Manu Paliwal

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ड्योढ़ी पर बैठा

ड्योढ़ी पर बैठा

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अवसान होता देख रहा हूँ,

ड्योढ़ी पर बैठा दिन ढल गया,

भीतर दीवारों का सन्नाटा है,

इन दीवारों ने बहुत कुछ सुना है,

घर की चौखट से बाहर ही देखना है,

अंदर कहाँ अब कुछ दिखाई देता है,

वो कल की ही तो बात है,

कैसे लिपट जाते थे सब,

अब आवाज भी कहाँ सुनाई देती है,

ये शाम की लालिमा है शांत है,

कोलाहल है मन में तूफान ही है,

अब ये कैद ही है इस पिंजर में रहना,

अनकहे उलाहने कितने कटीले है,

तू तो कल फिर उदय होगा सुबह,

पर मैं तो इसी देहरी पर बैठा मिलूंगा,

बाट जोहता पिंजरे के टूटने की,

रोज देखता हूँ पंछियों को जाते हुए,

शाम कब आएगी जब मैं भी उड़ जाऊंगा,

मत बोलना तुम दीवारों में भी था कभी।।



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