Dr Jogender Singh(jogi)

Abstract

4.7  

Dr Jogender Singh(jogi)

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सफ़र

सफ़र

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खेल लेता हूँ कभी-कभी,अभी भी

आँख भी नम हो जाती


कण्ठ से सुबकने की मगर अब आवाज़ नहीं आती

चुप कराती दुलार कर,अब वो माँ नज़र नहीं आती


शरारतें, तफ़रीह करना चाहता है यह दिल आज भी , 

शरारत में साथ देती, वो दोस्तों की टोली क्यूँ नज़र नहीं आती ?


दिल धड़कता है बात / बात पर,हर जज़्बात पर

धड़कन में, वो टीस नज़र नहीं आती


जतन कर रोक रखा है दिल को , 

महबूबा अभी भी जवाँ ही नज़र आती


इठलाती,बहकाती, वो मुस्कुरा कर ग़ायब हो जाती

जवानी की यह कहानी समझ नहीं आती ?


होठों से उठकर, आँखों में समा जाने वाली, 

वो मुस्कान, अब कभी नज़र नहीं आती।


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