सफेद ख्वाब
सफेद ख्वाब
ख्वाबों के टूटने की तड़प,
कोई हमसे पूछे ज़रा,
हर ख्वाब की वो तड़क,
कोई कैसे समझे भला ?
कितने अनगिनत ख्वाब,
रह गए आँखों में कहीं,
जिनकी चुभन अकेले में,
आज भी लगती है यहीं।
बचपन से जवानी तक,
ख्वाब यहाँ अनेकों आये,
मगर उन सब पर पड़े थे,
ना जाने कितने भूतिया साये।
ऐसा नहीं कि वो ख्वाब कभी,
सजने की कतार ना पाया,
मगर जब भी सजता बेचारा,
किसी और ने उसे बेवा बनाया।
ख्वाब पूरे हुए जो भी,
वो कभी मैने देखे ना थे,
और जितने देखे थे सारे,
वो सभी गिरे हुए यहाँ थे।
अब ख्वाबों से जी भर सा गया है,
हर ख्वाब में एक रंग लगा है,
अब सफेद ख्वाब जो भी आते,
वही वैधव्य का जीवन बिताते।