सोलह शृंगार
सोलह शृंगार
मैं नासमझ, कहां समझता था, किसी शृंगार को ।
वो जिसने किए मेरे लिए सोलह शृंगार ।।
पहले पहना माथे उन्होंने, माँग–टिका ।
जैसे बादल ने, सजाया हो माथे पर चांद को ।।
सिंदूर से होता है, मान हर स्त्री का ।
सुनता है अब वो भी सिर्फ सनम को ।।
पेशानी पर बनती हैं जगह, सिर्फ लाल बिंदी की ।
करती है सवाल, अब वो उस झुमके को ।।
झुमका भी कुछ अपनी यूं चलाता हैं ।
चूम लेता है बेझिझक उस गर्दन को ।।
फूलों ने भी सहलाया है बालों को ।
गजरे ने बढ़ाया हैं, उनकी रौनक को ।।
नथ भी कुछ यूं ही बवाल करती है ।
पास रखती है अब वो उनके होंठों को ।।
मंगलसूत्र ने जकड़ी नहीं है आज़ादी तुम्हारी ।
तुम आज़ाद हो, खुले आसमान में उड़ने को ।।
ग़ैर से पहले तुम्हे मेरी नज़र लग जानी हैं ।
तुम कान के पीछे भी लगाया करो काजल को ।।
सीने से लगा रखी है, अंगूठी उनकी ।
जैसे बाहों में भर रखा हो सनम को ।।
लगता हैं मेहंदी का रंग भी खूब चढ़ा हैं ।
छुपा जो लिया हैं तुमने उसमें सनम को ।।
और अब बस रख दो, यह चूड़ियां मेरे नाम तुम ।
मैं वार दूंगा तुम पर सारी दुनिया को ।।
देह पर लगाया गया पहले उबटन को ।
जीता हैं उन्होंने तन से पहले, मन को ।।
करधनी भी रखती हैं, ख्याल उस नाभि का ।
सहम जाती हैं वो, जो छू ले कमर को ।।
आलता, मीना और पायल करती है रखवाली पाँव की ।
झूम उठती हैं धरती जब रखती हैं कदम को ।।
लाल जोड़ा भी क्या खूब जचता है उनपर ।
बताओ तुमसे कैसे हटाए अपनी नज़र को ।।
और आख़िर में रखा हैं "जय" की मोहब्बत को।
नूर आता हैं जब वो चूम लेते हैं माथे को ।।

