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बेज़ुबानशायर 143

Abstract Romance Fantasy

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बेज़ुबानशायर 143

Abstract Romance Fantasy

सोलह शृंगार

सोलह शृंगार

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मैं नासमझ, कहां समझता था, किसी शृंगार को ।

वो जिसने किए मेरे लिए सोलह शृंगार ।।


पहले पहना माथे उन्होंने, माँग–टिका ।

जैसे बादल ने, सजाया हो माथे पर चांद को ।।


सिंदूर से होता है, मान हर स्त्री का ।

सुनता है अब वो भी सिर्फ सनम को ।।


पेशानी पर बनती हैं जगह, सिर्फ लाल बिंदी की ।

करती है सवाल, अब वो उस झुमके को ।।


झुमका भी कुछ अपनी यूं चलाता हैं ।

चूम लेता है बेझिझक उस गर्दन को ।।


फूलों ने भी सहलाया है बालों को ।

गजरे ने बढ़ाया हैं, उनकी रौनक को ।।


नथ भी कुछ यूं ही बवाल करती है ।

पास रखती है अब वो उनके होंठों को ।।


मंगलसूत्र ने जकड़ी नहीं है आज़ादी तुम्हारी ।

तुम आज़ाद हो, खुले आसमान में उड़ने को ।।


ग़ैर से पहले तुम्हे मेरी नज़र लग जानी हैं ।

तुम कान के पीछे भी लगाया करो काजल को ।।


सीने से लगा रखी है, अंगूठी उनकी ।

जैसे बाहों में भर रखा हो सनम को ।।


लगता हैं मेहंदी का रंग भी खूब चढ़ा हैं ।

छुपा जो लिया हैं तुमने उसमें सनम को ।।


और अब बस रख दो, यह चूड़ियां मेरे नाम तुम ।

मैं वार दूंगा तुम पर सारी दुनिया को ।।


देह पर लगाया गया पहले उबटन को ।

जीता हैं उन्होंने तन से पहले, मन को ।।


करधनी भी रखती हैं, ख्याल उस नाभि का ।

सहम जाती हैं वो, जो छू ले कमर को ।।


आलता, मीना और पायल करती है रखवाली पाँव की ।

झूम उठती हैं धरती जब रखती हैं कदम को ।।


लाल जोड़ा भी क्या खूब जचता है उनपर ।

बताओ तुमसे कैसे हटाए अपनी नज़र को ।।


और आख़िर में रखा हैं "जय" की मोहब्बत को।

नूर आता हैं जब वो चूम लेते हैं माथे को ।।



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