संभलता हुआ किनारा
संभलता हुआ किनारा
संभलता हुआ था एक किनारा,
जो बाजुओ से यूँ गिर गया ।
आहटे थी दिवार की,
जो बंद कमरे मे ही दब गई ।
हुस्न का खुमार था,
जो जुल्फों से यूँ छुप गया।
चलते थे सोच के बाजार मे,
लेकिन वहाँ भी झूठे किराएदार मिल गए ।
चादरें थी दिल की,
वो भी गुलाम के आयने मे बिक़ गई ।
संभलता कब तक ये किनारा क्योंकि,
नाराजगी के बूंदें यूँ गिरी,
आसमान से कि किनारा ही गायब हो गया ।