मन के आँगन में
मन के आँगन में


मन के आँगन मे जल रहा था दिया
ना कुछ पाने कि उम्मीद थी
ना खोने का दर्द
मुसाफिर दिल का अंजना सफर था
जो अक्सर पहेलियाँ सुलजाता था
बेफाम सी थी हरकते
जो काच के टुकडे को भी सजा के रखता था
महँगा था किरदार उसका
जो आंसू को बेच के भी खुशियाँ बाटता था
परवाह भी थी उनकी
जो कभी गैरो कि नज़रो से देखा करते थे
ना थी शिकायत कभी
जो खुद को मुजरीम बनाया फिरता था
उसका आँगन था सर्कस का खेल
जहाँ हर तरह के किरदार निभाए जाते थे।