समझ बैठे...
समझ बैठे...
वो तक़दीर में लिखी मुलाक़ात थी, जिसे वो इत्तफ़ाक़ समझ बैठे
और उस रिश्ते की शुरुवात को हम प्यार समझ बैठे,
होंगी उन्हें भी मोहब्बत, ये आस लगा बैठे
और इस मोहब्बत की आग में हम खुदको जला बैठे,
रोकना चाहा अपनी चाहत को, पर प्यार कर बैठे
उन्होंने सवाल ही ऐसा किया की हम मुस्कुरा बैठे,
फिर ना चाह कर भी, हम इज़हार कर बैठे
और वो हमारे लफ्ज़ों को नज़र अंदाज़ कर बैठे,
बदनसीबी का आलम ये है, हम कागज़ कलम तक उठा बैठे
और वो मोहतरमा दास्तां-ए-मोहब्बत को शायरिया समझ बैठे...
