समिधा
समिधा
चाहे लिख दो कहानियाँ या कविताएँ
न समझ पाओगे
मेरे मन की भाषा....
जो विश्व पाला है आँचल में
उसको तुमने अपनी
इच्छाशक्ति से तराशा...
कभी अत्याचार
कभी उत्पीड़न
कामनाओं में तेरी दग्ध हुई...
पर भोर किरण सी
जाग उठी तेरे घर आँगन में
तुमने तो व्यक्त की
अपनी कल्पनाएँ
पर मैं अव्यक्त रही......
कभी मात बनी
कभी सहेली, प्रेमिका
भगिनी या अर्धांगिनी
हर रुप में बनी
मैं तेरी सखा....
लौ हीन रही
पर तुम्हें उजालों
में ही रखा.....
स्वयं आंकलन कर लो
हर रुप का तुम
रहस्य न खोल पाओगे.....
नारी गर्भ सा
नव सृजन न कर पाओगे.......
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हर पन्ने पर उभर आऊँगी
शब्दों की उफ़नती नदी
बन के मैं बह जाऊंगी
तुम कभी न रोक पाओगे....
कभी घोर अँधेरा
कभी अश्रुधारा
कभी अंगारों की सेज
कभी ऋतुओं की मादकता.....
हर बिंब का प्रतिबिंब मैं
हर इच्छाओं की पूर्णता......
तुम कह लो
कामिनी, चँचला या मनमोहिनी
पर अनंत रुप न
देख पाओगे....
विद्यमान मैं जीवन चक्र में
पर तुम
अधूरी ही लिख पाओगे.....
कोरी किताब मैं
कोरे शब्द ही
रह जाऊँगी,
पुरुषोत्तम रहोगे तुम
पर मैं
सर्वोत्तम न हो पाऊँगी.....
तेरे अहं की समिधा
बन प्रज्वलित हूँ
स्वयं को न कर सकी
परिभाषित मैं
पर ग्रंथ में उद्भासित रही...।।