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Dr. Poonam Gujrani

Classics

4  

Dr. Poonam Gujrani

Classics

माँ का दिन

माँ का दिन

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लेते- देते हुए

चटक रहा है

कितना माँ का दिल

कहाँ जानता है बेटा।


वो कहना चाहती है

अपने मन की पीड़ा

बताना चाहती है

 छोटी-छोटी ख्वाहिशें 

 कि अब भी कभी तू 

आकर डाल ले गलबहियाँ 

और कर दे फरमाइशें अनगिनत।


और मैं कान उमेठ कर 

आँख दिखाऊँ तुम्हें

पर नहीं होता ऐसा 

समय कहाँ है तुम्हारे पास

अब तू है बड़ा अफसर।


अब माँ

माँ कहाँ है

सिर्फ रिक्तस्थान की 

पूर्ति भर है

उसकी दवाई,टूटा चश्मा

नहीं रहता है तुझे याद 


बीवी बच्चों की

फरमाइशों के बीच

भूल जाता है

 तूं अक्सर इन्हें 

अपनी गृहस्थी के बीच।


नहीं जानता

माँ ने अधूरे छोङ़ दिये थे 

अपने सारे ख्वाब, सारे शौख

तेरे आने के बाद।


आजकल काँपने लगे हैं 

माँ के हाथ

थरथराने लगी है आवाज

अपच ,गैस, बदहजमी

छींकना, खांसना

बात-बात पर 

गाँव को करना याद

आदत सी हो गई है।


 तेरी चिड़चिड़ाहट सुनकर

 टपका देती है आँसू

 फिर चुप होते ही 

 माँगने लगती है 


भगवान से दुआ

 तेरे और तेरे पूरे

 कुनबे के लिए।


आजकल चूकने लगी है

उसकी शक्ति

कमजोर हो गई है आँखें

दुखने लगे हैं पाँव

अब धीरज, सहनशक्ति भी


नहीं रही पहले जैसी

पर जीना तो है 

इसलिए हे बेटे

मातृ दिवस पर आज

पल भर देखना 

माँ बनकर।


तभी जान पाओगे

क्या चाहती है 

तुम्हारी माँ तुमसे।


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