गृहिणी
गृहिणी
अपने कोमल कंधों पर वो
सारे घर का बोझ उठाती है,
सबेरे की चाय से लेकर
रात के दूूध का गिलास तक
हाथ में थमाती है
सर्दी हो या गर्मी वो कहाँ
चैन की नींद सो पाती है
मौसम के हिसाब से
बदला करता है उसका काम भी
ठंडी में बड़ियाँ और पापड़
तो गर्मियों में आम का अचार बनाती है
तरह तरह के पकवान बनाती
होटल का खर्चा बचाती है
सबके पसंद नापसंद का ख्याल वो रखती
सबकी खुशियों में वो खुश हो जाती है
चौबीस घंटे, सातों दिन काम करती है
फिर भी दिनभर क्या करती हो ? का तमगा पाती है
ये सुनकर भी मुस्कुराती है और
अपने बलबूते पे घर को स्वर्ग वही बनाती है।