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मैं अभिशप्ता

मैं अभिशप्ता

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नीर भरे नयनो में

अधरों पे दुख की कथा

पीड वही नित्य पुरानी

चिर निराश्रय

मैं अभिशप्ता.....।


भाव लगाये विश्व मेरा

भावनाओं की बोली असहाय

करुणा की निर्झरिणी हूँ

जीवन अंतहीन अश्रुमय

प्रेम से सिंची बीज प्राण की

सहज ना है सहना अधमता

मैं अभिशप्ता..।


निष्प्राण हृदय की व्यथा

लक्ष्यहीन नदी की गाथा

मैं चन्द्रमा नहीं

अमावस की काली शून्यता

मैं अभिशप्ता....।


हे , मायावी आकाश !

हे , विशाल समुद्र !

है कहाँ लुप्तप्राय

संसार काउदार हृदय

हे , ऊनविंश मानव

कैसी है यह अनैतिकता

क्यों इस दौर में कहलाऊँ॥॥॥

मैं अभिशप्ता....।

मैं अभिशप्ता....।


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