तृष्णा
तृष्णा
परिपूर्णता नहीं मिलती जब
उद्विग्न मन निशांत मेंं
छाया वृक्ष बन जाता है,
स्व मेंं आहुति देता ये मन
मरुथल मेंं विलीन हो जाता है।
कभी देखा है,
किसी चातक को बादल को छूते हुए ?
घेर लेती हैं कई पूर्ण, अपूर्ण या
अर्ध -पूर्ण आकांक्षाएँ।
निराश्रित मन को ..
बरस जाने के लिये
काल वैशाखी मेंं ..
तप्त लहू को और तपाने
आतुरता के अंगारों पर,
चल पड़ते हैं दो कोमल पैर
मृग मरीचिका की राह में।
ये मन विचलनों मेंं कभी
प्रस्तारित होता है,
तो कभी संकुचित
कई प्रभात आते हैं
निर्मेघ आकाश में
कई नदियाँ बह जाती हैं
पत्थरों को भेद कर ...
संघर्षों का जीवन असमाप्त
और असंपूर्ण अतृप्त रह जाता है
जो आता है कभी अनियंत्रित मन का
बन जाने परिपूरक ....तब
ये निर्जन मन तृष्णा से
भर जाता है ......
जो कालांतर तक रहता है
केवल तृष्णा और तृष्णा ही बनकर।
