समेट कर आये हैं
समेट कर आये हैं
हम अपना सारा जुनून समेट कर आये हैं
नींद का कत्ल किया आँखों में खून समेट कर आये हैं
ये ठंडी गर्मी क्या होती है साहब..?
हम काँपती दिसंबर, तपती जून समेट कर आये हैं
के सीमाओं पर मची रहती उथल-पुथल
मगर देश के लिए हम सुकून समेट कर आये हैं
ये जो लड़ रहें है आपस में जात-पात को लेकर
क्या इन्हीं के लिए हम होठों पर जन-गण-मन समेट कर आये हैं
माँ का आँचल, यारों का साथ छूटा, छूटी महबूबा की कलाई
के हम वतन के खातिर सारा यौवन (जवानी) समेट कर आये हैं।।