सिंदूरी माथे की
सिंदूरी माथे की
उसके माथे की जो सिंदूरी है,
होगा गुमान किसी मर्द का,
उसकी तो मजबूरी है।
पिता की थी लाडली वो,
स्नेह में तृप्त जैसे बावली वो,
मां एक सच्ची सखी सी,
भाई से लड़ने को उतावली वो।
ख़्वाब से बेहतर घर था उसका,
फ़िर नए रिश्ते नया घर,
क्यों ज़रूरी है ?
उसके माथे की जो सिंदूरी है,
होगा गुमान किसी मर्द का,
उसकी तो मजबूरी है।
अभी तो उसकी उरान बाक़ी है,
बचपन की खिलखिलाती मुस्कान बाक़ी है।
हौसला देती खुद को,
कहती अभी तुझमें जान बाक़ी है।
कलम उठाती पर सहम जाती,
जब जब खनकती उसकी चूड़ी है।
उसके माथे की जो सिंदूरी है,
होगा गुमान किसी मर्द का,
उसकी तो मजबूरी है।
एक तो है जिससे दर्द बताएगी,
पहले वो हमदर्द बन तो जाए।
तन की पड़ी है उसको,
पहले मन में तो समाए।
रात का साथ पसन्द है उसको,
कभी दिन की उजालो में तो आए।
एक बार पूछे तो सही,
क्या ज़रूरी है ?
क्या तेरी मजबूरी है ?
उसके माथे की जो सिंदूरी है,
होगा गुमान किसी मर्द का,
उसकी तो मजबूरी है।