अस्तित्व
अस्तित्व
काई की चादर लपेटे,
वो बदहाल दीवार।
हर बारिश में कांप जाती है।
और छाती पर जन्मी महाजन बेली,
दरारों से बहता दरिया देख,
अपने हरे योवन को भांप जाती है।
बदरंग दीवार की दरकती परते।
गिर गिर कर मिल गई हैं मिट्टी में।
लाल ज़ख्म भीतर का दिखने लगा है।
काई की चादर छोटी पड़ गई है।
बेली के पत्तो पर थप थप की गूंज
अब और गहराती जाती है।
अहसास होता है बेली को,
जड़ उसका भी छोटा है।
दरार से निकली छिपकली,
छुप जाती है पत्तो के नीचे।
ये बताते हुए कि
दीवार ज़रूरी नहीं।
छत जरूरी है।