झरोखा पछतावे का
झरोखा पछतावे का
सुबह का भूला शाम न लौटा,
ऐसा भटका राही हूं मैं।
बेबस बीच पन्ने पर अटका,
टूटी कलम की स्याही हूं मैं।
मीलों दूर चला गया कारवां,
जिसका छूटा एक गवाही हूं मैं।
चेहरे पर है जीत का मुखौटा,
मगर चूका हुआ सिपाही हूं मैं।
बीच समंदर से पहुंचा तट पर,
क्योंकि लहरों का माही हूं मैं।
लौटती लहरों ने कहा मुझसे,
देख कितनी बड़ी तबाही हूं मैं।