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Kumar Sonu

Abstract

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Kumar Sonu

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सावन की पहली बारिश

सावन की पहली बारिश

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सुबह से घनघोर अंधेरा ऐसे,

रात के हांथो को पकड़े सवेरा जैसे।

ठंडी आह हवा ने भर ली है,

मुरझाए फूल कहते, अभी भी गरमी है।

इन फूलों की बस एक ही गुज़ारिश,

बरस जाए ओ सावन की पहली बारिश।


गगन में छपे चित्र कैसे कैसे,

धीरे धीरे धूमिल होती जाती हैं।

छबि बनते बिगड़ते बिचित्र ऐसे ऐसे,

उजाले की मल्लिका, 

श्यामल आगोश में सोती जाती है।


ये उजाले पर अंधियारे की जीत अच्छी,

गीत गाते चहचहाते पंक्षी।

मन बचपन का, तन जवानी की,

भीग जाने की है ख्वाहिश।

बरस जाए वो सावन की पहली बारिश।


ठनके की ताल पे, तांडव करती बिजलियां,

पहाड़ों के माथे चूमते काले मदहोश बादल,

बेबस लाचार भबरे, तितलियां।

पवन के थपेड़ों से , झूमते पेड़ पागल।

गमलों के पौधे डरते घबराते, 

झूमते ऊंघते जंगली पेड़ लावारिस,

बरस जाए वो सावन की पहली बारिश।


टिप टिप छप छप से हा हा तक हो गया।

दरियों में जोश, नालो में आक्रोश भर गया,

गगन भी मगन, उसका नीला रंग कहीं खो गया।

टूटती टहनियां, उखरते जड़ देख पेड़ मानो डर गया,

पर हवाओं और बारिश की कुछ ऐसी साजिश,

जैसे निकाल रहे कोई बरसों पुरानी रंजिश,

थम जाए ये सावन की पहली बारिश।


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