सीढ़ियां
सीढ़ियां
दो तरह से होती हैं
जो नीचे भी जाती हैं
और ऊपर भी।
कुछ बस
सीधे सीधे चलती जाती हैं
कुछ घूमते घुमाते हुए
जाती हैं।
इनपर
कभी दबे पांव
कभी कूदते फांदते
शोर मचाते सिर्फ
पैर ही नहीं चलते जाते
इनपर चलती है सोच
हमारी भी
कभी इनपर चोट करते,
इनको दबाते हुए,
कभी इन सीढ़ियों पर
अपनी पकड़
बनाये रखते हुए
इंसानी सोच सब कुछ
अपने हिसाब से
चाहती है
इसलिए इन सीढ़ियों पर
अपना हर्ष दिखाती
रोष जताती
बेढंगे से करतब
दिखाती जाती है।
लेकिन इन सब
चढ़ने उतरने की
मूर्त अमूर्त गतिविधियों में
किसी भी सीढ़ी को
कभी कोई फर्क
नहीं पड़ता
न वे प्रतिकार करती है
किसी भी सोच का,
उन्हें पता रहता है
उनके इस तरह से बने रहने,
होने का कारण।
ये चढ़ाती
उतारती, घूमती-घुमाती
सीढ़ियां जानती है
वे दैव लिखित गंतव्य का
मार्ग मात्र हैं।