श्रीमद्भागवत-७५; महाराज पृथु के सौ अशव्मेघ यज्ञ
श्रीमद्भागवत-७५; महाराज पृथु के सौ अशव्मेघ यज्ञ
ब्रह्मावर्त क्षेत्र में पृथु जी ने
सौ अशव्मेघ यज्ञों की दीक्षा ली
इंद्र सोचें ऐसे तो कर्म बढ़ें
पृथु के, मेरी अपेक्षा भी।
भगवान पृथु के यज्ञ में हरि ने
साक्षात् दर्शन दिया था
ब्रह्मा, रूद्र और लोकपालों ने
उस यज्ञ में भाग लिया था।
भूमि ने कामधेनु रूप में
यज्ञ सामग्रीयों को दिया था
यजमान की सारी कामनाओं को
भूमि ने ही पूर्ण किया था।
भगवान श्री हरी को ही अपना
भगवन पृथु थे प्रभु मानते
अनुष्ठान से उनका बड़ा उत्कर्ष हुआ
प्रभु हरि की ही कृपा से।
यह बात देवराज इंद्र से
बिलकुल भी सहन न हुई
उन्होंने उस अशव्मेघ यज्ञ में
विघ्न डालने की चेष्टा की।
जिस समय आराधना कर रहे
महाराज पृथु अंतिम यज्ञ में
उनके यज्ञ का घोडा हर लिया
पाखंडवेष धर कर इंद्र ने।
उस वेश में घोड़े को लेकर
आकाशमार्ग से जा रहे जब
अत्रि मुनि की दृष्टि पड गयी
पृथु पुत्र को बता दिया सब।
पृथु पुत्र इंद्र को मारने
बड़े क्रोध में पीछे दौड़ा
जटा, भस्म देख धर्म समझे उसे
इसीलिए था वाण न छोड़ा।
बिना इंद्र के लौट आये जब
उन्हें फिर आज्ञा दी अत्रि ने
तुम मार ही डालो उसको
यज्ञ में विघ्न डाला इंद्र ने।
अत्रि मुनि के कहने पर
इंद्र के पीछे फिर दौड़े वो
इंद्र देखें पृथु कुमार क्रोध में
घोड़े को वहीँं छोड़ें वो।
अपने वेश को भी वहीँ छोड़कर
अंतर्ध्यान वहां से हो गए
पृथु कुमार तब यज्ञ पशु को
पिता की यज्ञ शाला में ले गए।
उनके पराक्रम को देखकर
बहुत प्रसन्न हुए थे ऋषिवर
उनका नाम विजितावश रखा
घोड़े को रखा खम्भे से बांधकर।
इंद्र ने थी फिर माया रची
घोर अंधकार फैलाया वहांपर
जंजीरों सहित घोड़े को ले गए
वो उस अन्धकार में छिपकर।
अत्रि मुनि ने फिर उन्हें था
आकाशमार्ग से जाते देखा
किन्तु कपाल, खटवांग देखकर
पृथु पुत्र ने उनको न रोका।
तब अत्रि ने राजकुमार को
इंद्र को मारने के लिए उकसाया
इंद्र को तब लक्ष्य बनाकर
पृथु कुमार ने वाण चढ़ाया।
यह देखकर इंद्र वहां से
अंतर्ध्यान फिर से हो गया
विजितावश घोड़े को वहां से
यज्ञ में वापिस ले आया।
इंद्र के उस निन्दित वेश को
ग्रहण किया मंद
बुद्धि पुरुषों ने
पाखण्ड कहलाये वो वेश सब
जो इंद्र ने धारण किये थे।
वास्तव में ये उपधर्म मात्र हैं
लोग भ्रमवश धर्म मानकर
इनमें हैं आसक्त हो जाते
इनको बुरा न जानकर।
इंद्र के इस कुचाल का पता
जब चला महाराज पृथु को
धनुष पर उन्होंने वाण चढ़ाया
तब ऋषिओं ने रोका उनको।
कहें राजन, बुद्धिमान आप हैं
ले लेने पर यज्ञ की दीक्षा
यज्ञ पशु को छोड़कर
उचित नहीं वध करना किसी का।
इंद्र तो निस्तेज हो गया
ईर्ष्या में, आपके सुयश से
मन्त्रों द्वारा बुलाकर यहाँ उसे
हवन कर देते हैं अग्नि में।
यजमान से संवाद करकर फिर
याचकों ने इंद्र का आह्वान किया
चाहते थे आहुति डालना
ब्रह्मा ने आकर उन्हें रोक दिया।
बोले याचको, ये जो इंद्र है
मूर्ती है भगवन की ही वो
इंद्र तो यज्ञसंज्ञक है
नहीं मारना चाहिए उसको।
यज्ञ द्वारा जिन देवताओं की
तुम लोग आराधना करते
वो इंद्र के ही अंश हैं
उसको ही तुम मारना चाहते।
तुम अधिक विरोध न करो
वो और पाखण्ड करेगा नही तो
चाहे परमयशश्वी पृथु के
निन्यानवें ही यज्ञ रहते हों।
फिर राजर्षि पृथु से कहा
राजन, धर्म जानें आप हैं
आप को इन अनुष्ठानों की
कोई आवश्यकता नहीं है।
आप और इंद्र दोनों ही
भगवान हरि के शरीर हैं
इसलिए इंद्र के प्रति
क्रोध करना उचित नहीं है।
निर्विघ्न समापत नहीं हुआ यज्ञ
चिंता न करें उसके लिए
बस आप मेरी बात मानकर
इस यज्ञ को बंद कीजिये।
इसी के कारण इंद्र के पाखण्ड से
है धर्म का नाश हो रहा
इन मनोहर पाखंडों की तरफ है
जनता का खिंचाव हो रहा।
आप साक्षात विष्णु के अंश हैं
जब वेन ने धर्म का नाश किया था
उस समय धर्म की रक्षा को
उसके शरीर से जन्म लिया था।
पाखंड ये इंद्र की माया हैं
जननी हैं ये अधर्म की
आप इसको नष्ट कीजिये
जिद छोड़िये इस यज्ञ की।
ब्रह्मा जी के समझाने पर
पृथु ने यज्ञ का आग्रह छोड़ दिया
प्रीतिपूर्वक संधि कर ली इंद्र से
और उससे झगड़ा छोड़ दिया।
यज्ञान्त स्नान से निवृत हुए
देवताओं ने अभीष्ट वर दिए
ब्राह्मणों को उन्होंने दी दक्षिणा
उन्होंने पृथु को आशीर्वाद दिए।