श्रीमद्भागवत -६४;ध्रुव का वन गमन
श्रीमद्भागवत -६४;ध्रुव का वन गमन


विदुर जी को मैत्रेय जी कहें कि
सनकादि, नारद, ऋभु ये
हंस, अरुणि और यति सब
ब्रह्मा के ब्रह्मचारी पुत्र थे।
गृहस्थ आश्रम में प्रवेश ना किया
इसी लिए संतान ना इनकी
अधर्म भी ब्रह्मा जी का पुत्र
मूषा नाम की पत्नी उनकी।
दम्भ नामक पुत्र उनका
थी माया नाम की कन्या
निरऋति उन दोनों को ले गया
क्योंकि उसके संतान कोई ना।
दम्भ और माया से जन्म हुआ
लोभ का और निकृति का
उनसे क्रोध और हिंसा उत्पन्न हुए
उनसे जन्म कलि और दुरुति का।
कली और दुरुति से जन्म हुआ
भय और मृत्यु दोनों का
उन दोनों के संयोग से
उत्पन्न हुए नरक, यातना।
प्रलय के कारणरूप अधर्म का
वंश तुमने ये सुना है मुझसे
स्वयंभुव मनु के पुत्रों का
अब करूं मैं वर्णन तुमसे।
मनु शतरूपा के दो पुत्र
प्रियव्रत, उत्तानपाद नाम के
दोनों थे बड़े पराक्रमी और
संसार की रक्षा में तत्पर थे।
उत्तानपाद की दो पत्नियां
सुनीति और सुरुचि नाम की
सुनीति से उसको कम लगाव था
सुरुचि राजा को अधिक प्रिय थी।
एक दिन राजा उत्तानपाद जी
गोद में लिए अपने पुत्र को
जो सुरुचि पुत्र उत्तम था
प्यार कर रहे थे वो उसको।
उसी समय सुनीति पुत्र ध्रुव
गोद में बैठना चाहता उनकी
पर राजा ने स्वागत ना किया
सुरुचि भी खड़ी वहां घमंड से भरी।
सुरुचि ने देखा सौत पुत्र ध्रुव
राजा की गोद में चाहे बैठना
राजा के सामने ही ध्रुव को
डाह भरे शब्दों में ये कहा।
राज सिहांसन पर बैठने का
कोई अधिकार नहीं है तेरा
माना राजा का बेटा है पर
पुत्र तू नहीं है मेरा।
मेरी कोख से ना जन्मा तू
पुत्र तू दूसरी स्त्री का
राज सिहांसन की है इच्छा तो
नारायण की करो आराधना।
तपस्या से प्रसन्न करो उनको
फिर जब तुमपर उनकी कृपा हो
तब अगले जन्म में आकर
कोख से मेरी तुम जन्म लो।
ध्रुव क्रोध में, लम्बी सांसें लें
कठोर वचन सुन सौतेली माँ के
पिता चुपचाप ये सब देख रहे
एक शब्द ना बोले मुँह से।
पिता के पास से ध्रुव चला फिर
सीधा अपनी माँ के पास गया
सिसक सिसक कर रो रहा था
माता ने उसे गोद में ले लिया।
लोगों से जब पता चला कि
सुरुचि ने ध्रुव को क्या कहा था
शोक से संतप्त हो गयीं
उसको बड़ा ही दुःख हुआ था।
नेत्रों में आंसू भर आये
गहरी साँस ले, कहा ये ध्रुव से
स्वयं ही फल को भोगना पड़ता
जो मनुष्य दूसरों को दुःख दे।
सुरुचि ने जो कुछ भी तुमसे कहा
ठीक ही कहा है वो क्योंकि
राजा को लज्जा आती है
मुझे अपनी पत्नी कहते हुए।
मुझ अभागी के गर्भ से जन्म हुआ
तू पला है, मेरे दूध से
राजसिहांसन पर बैठना चाहे तो
मान उसे जो सुरुचि ने कहा तुमसे।
करो श्री हरी की आराधना
उनका आश्रय तू क्यों नहीं लेता
तेरा दुःख दूर करे जो
दूसरा कोई दिखाई ना देता।
माता का वचन सुन ध्रुव ने
बुद्धि से चित को स्थिर किया
पिता के नगर से निकल गए वो
और वन की तरफ गमन किया।
नारद जी ये सुन वहां आ गए
मस्तक पर कर कमल फेरा था
कहें, क्षत्रिय का अद्भुत तेज है
मानभंग सहन ना करे थोड़ा सा।
देखो अभी छोटा बच्चा है
कितना क्रोध इसके ह्रदय में
सौतेली माँ ने कटु वचन कह दिया
वो घर कर गया इसके मन में।
नारद जी ने ध्रुव को तब था कहा
बेटा, तू अभी बच्चा है
इस उम्र में किसी के कहने से
सम्मान, अपमान नहीं हो सकता है।
मान अपमान का ये विचार ही
असंतोष का कारण है मनुष्य के
मान अपमान और सुख दुःख आदि
प्राप्त होता अपने कर्मों से।
इस लिये पुरुष को चाहिए
जैसी भी प्रस्थिति आन पड़े
उस सब से संतुष्ट रहे वो
और उसका वो सामना करे।
प्राप्त करना चाहो हरि कृपा
जो तुम माता के उपदेश से
योगी लोग भी ना कर पाएं
है बहुत कठिन मार्ग ये।
व्यर्थ का हठ ये तू छोड़ दे
और तू अब चला जा अपने घर
जब तू थोड़ा बड़ा हो जाये
प्रयत्न कर लेना इसके लिए फिर।
मनुष्य को प्रसन्नता होनी चाहिए
देखकर अपने से अधिक गुणवान को
जो उससे कम गुणवान हो
दया उस मनुष्य पर करे वो।
जो उसके समान गुणवान हो
मित्रता का भाव हो उससे
मनुष्य अगर ये करता है तो
दुःख नजदीक ना आ सके उसके।
अच्छा उपाय बताया शांति का
ध्रुव कहे भगवान आपने
परन्तु दृष्टि ना पहुंचे उनकी
अज्ञानी जो हैं मेरे जैसे।
विदीर्ण कर दिया मेरे ह्रदय को
सुरुचि के कटु वचनों ने
यह उपदेश ठहर ना पाए
इसी लिए मेरे ह्रदय में।
अधिकार करना चाहूँ उस पद पर
सब से श्रेष्ठ जो त्रिलोकी में
आप मुझे मार्ग बताएं
जो मदद करे उसकी प्राप्ति में।
ध्रुव ने अपनी बातों से था
नारद जी को प्रसन्न कर दिया
और उन्होंने बड़े पयार से
सदुपदेश ध्रुव को फिर था दिया।
बोले बेटा, माता ने तुम्हारी
तुम्हे बताया जो कुछ भी है
उसी मार्ग पर तुम चलो अब
कल्याण का मार्ग वही है।
चित लगाकर कर भजन हरि का
यमुना के तट पर चला जा
मधुवन नाम की जगह वहां पर
निवास स्थान हरि का है जहाँ।
वश में कर मन, इन्द्रियों को
भगवान को जब प्राप्त हम करते
परमानंद प्राप्त हो जाता
जहाँ से वापिस फिर ना लौटते।
जाप करना तुम इस मन्त्र का
'ॐ नमो भागवते वासुदेवाय '
नारद जी का उपदेश पाकर तब
ध्रुव जी मधुवन को चले गए |
ध्रुव के चले जाने पर नारद
आये उत्तानपाद के महल में
पूछें राजा, मुख क्यों सूखा है
पड़े हुए किस सोच विचार में।
राजा बोले मत पूछो ब्राह्मण
निर्दयी प्राणी हूँ मैं बहुत ही
अपने पुत्र को घर से निकला
उसकी उम्र बस पांच वर्ष की।
वह बड़ा ही बुद्धिमान था
वन में भेड़िए ना खा जायें उसे
नारद जी बोले, चिंता मत कर
वहां भगवान हैं रक्षक उसके।
तुम्हे प्रभाव पता ना उसका
उसका यश फैल रहा जगत में
शीघ्र तुम्हारे पास लौटेगा
तुम्हारा यश भी बढे उसके यश से।
नारद की बातों को सुनकर
उत्तानपाद उदासीन हो गए
राजपाठ का मोह मिट गया
निरंतर पुत्र की चिंता में रहें।
इधर ध्रुव मधुवन पहुंच गए
वहां यमुना में स्नान किया
भगवान की उपासना आरम्भ की
साथ में उपवास भी किया।
शुरू में वो बस फल थे खाते
फिर सिर्फ जल पीकर रहे
और फिर वायु पीकर ही
हरि कि आराधना वो करें।
पांचवां मास लगने पर उन्होंने
शवास को भी जीता था अपने
परब्रह्म का चिंतन करते हुए
एक पैर पर खड़े हो गए।
कांप गए तीनों लोक तब
इस तपस्या के तेज से
आँगूठे से दबकर आधी पृथ्वी झुक गयी
एक पैर पर खड़ा होने से।
इन्द्रियद्वार और प्राणों को रोककर
हरि का ध्यान वो करने लगे थे
सभी जीवों का भी शवास रूक गया
इस तरह ध्रुव के करने से।
समस्त लोक और लोकपालों को
बड़ी पीड़ा हुई थी इससे
शरण में पहुंचे वो भगवान की
प्रार्थना करें वो श्री हरी से।
कहें प्राण समस्त जीवों का
एक ही समय में रुक गया है
जल्दी हमें इस दुःख से छुडाइये
ऐसा पहले कभी नहीं हुआ है।
भगवान बोले, डरो नहीं तुम
इस लिए है सब हुआ ये
चित को मुझ में लीन कर लिया
उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव ने।
तुम अब अपने लोक को जाओ
मैं ये सब ठीक कर दूंगा
उस बालक को दुष्कर इस तप से
मैं जाकर निवृत कर दूंगा।