श्रीमद्भागवत ४९; भिन्न भिन्न तत्वों की उत्पत्ति का वर्णन
श्रीमद्भागवत ४९; भिन्न भिन्न तत्वों की उत्पत्ति का वर्णन


कपिल जी ने कहा, हे माता
लक्षण बताऊँ तुम्हें प्रकृति आदि के
जिसे जानकर मुक्त हो जाए
मनुष्य प्रकृति के गुणों से।
आतमदर्शनरूप ज्ञान ही
मोक्ष का कारण, पुरुष के
यही दहन अहंकार का करता
इस ज्ञान का वर्णन करूँ तुमसे।
वह आत्मा जिसमें ज्ञान ये
व्याप्त हो प्रकाशित होता
अनादि, निर्गुण, स्वयं प्रकाश
पुरुष है, वो ही आत्मा।
माया को स्वीकारा उसने
प्रकृति सृष्टि उत्पन्न करने लगी
प्रकृति पुरुष के लक्षण क्या हैं
कपिल से देवहूति पूछे यही।
भगवान कहें, प्रकृति बनी जो
चौबीस तत्वों का समूह है
पाँच महाभूत, पाँच तन्मात्रा
चार अंतकरण दस इंद्रीयाँ हैं।
पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश
ये पाँचों महाभूत हैं
गंध, रस, रूप, स्पर्श, और शब्द
ये पाँचों तन्मात्रा हैं।
श्रोत, त्वचा, चक्षु, रसना
नासिका वाक् और पाणि
पद, उपस्थ और पायु
ये दसों इंद्रियाँ हैं इसकी।
मन, बुद्धि, चित और अहंकार
ये चारों अंतकरण हैं
संकल्प, निश्चय, चिंता और अभिमान
ये इन चारों की वृतियाँ हैं।
इसके सिवा काल जो जीवों में
ब्रह्म कालरूप में व्याप्त है
ये ख़ुद ही भगवान का रूप है
ये ही पच्चीसवाँ तत्व है।
भगवान के वीर्य से सबसे पहले
महतत्व उत्पन्न हुआ था
उससे अहंकार उत्
पन्न हुआ
जो है तीन प्रकार का।
वैचारिक, तेजस और तामस
ये तीन प्रकार हैं इसके
मन, इंद्रियां, पाँच महाभूतों की
उत्पत्ति हुई है इनसे।
महतत्व, अहंकार और पंचतत्व
ये सात तत्व मिल ना सके आपस में
तब नारायण ने स्वयं ही
प्रवेश किया था इन तत्वों में।
उससे एक अंड उत्पन्न हुआ
फिर उत्पत्ति हुई विराट पुरुष की
उस पुरुष के सभी अंग उत्पन्न हुए
और अभिमानी देवताओं की।
विराट पुरुष का हृदय उत्पन्न हुआ
हृदय से मन का प्राकट्य हुआ
मन के अभिमानी देवता
चंद्रमा भी उससे प्रकट हुआ।
हृदय से ही उत्पत्ति बुद्धि की
उसके अभिमानी देवता ब्रह्मा हुए
फिर अहंकार प्रकट हुआ था
रुद्र उसके अभिमानी देवता हुए।
उसके बाद चित प्रकट हुआ
अभिमानी देवता क्षेत्रज्ञ हुए थे
सभी अभिमानी देवता कोशिश करें
पर विराट पुरुष नहीं उठ रहे थे।
फिर सभी प्रविष्ट हो गए
अपने अपने उत्पत्ति स्थान में
पर फिर भी सफल हुए ना
विराट पुरुष को उठाने में।
पर जब चित सहित अभिमानी देवता
क्षेत्रज्ञ ने हृदय में प्रवेश किया
विराट पुरुष तुरंत ही तब
जल में उठकर खड़ा हो गया।
भक्ति वैराग्य से जो उत्पन्न हुआ
हर समय उसी ज्ञान से
जो अन्तरात्मा ही क्षेत्रज्ञ है
करना चाहिए उसका चिंतन हमें।