श्रीमद्भागवत-२६३; पोण्ड्रक और काशीराज का उद्धार
श्रीमद्भागवत-२६३; पोण्ड्रक और काशीराज का उद्धार
श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित
बलराम जी जब व्रज में गए हुए
पीछे से करूषदेश के राजा
अज्ञानी पौण्ड्रक ने कृष्ण के पास में।
दूत भेजकर कहलवाया कि
‘भगवान वासुदेव हूँ बस मैं ही’
मूर्ख लोग बहकाया करते उसे
कि वासुदेव हो बस तुम्हीं।
कहते उसे कि जगत की रक्षा को
पृथ्वी पर अवतीर्ण आप हुए
उसका फल ये हुआ कि
भगवान के पास दूत भेज दिया उसने।
राजसभा में आकर उस दूत ने
संदेश सुनाया राजा का अपने
‘ एकमात्र मैं ही वासुदेव हूँ
कोई नहीं है और सिवा मेरे।
प्राणियों पर कृपा करने के लिए
मैंने अवतार ग्रहण किया ये
तूने जो ये नाम वासुदेव रख लिया
उस नाम को तू छोड़ दे।
यदुवंशी ! मूर्खतावश तुमने
मेरे चिन्ह धारण कर रखे
इसे छोड़ मेरी शरण में आ जा
नहीं तो युद्ध कर मुझसे ‘।
श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित
मन्दमति पौण्ड्रक की बहक ये
सुनकर अग्रसेन आदि सब
ज़ोर ज़ोर से हंसने लगे।
भगवान कृष्ण ने दूत से कहा
‘ अपने राजा को यह कह देना
हे मूढ़, मैं अपने चक्र आदि
चिन्ह कभी भी ना छोड़ूँगा।
तुमपर ही छोड़ूँगा मैं इन्हें
और तुम्हारे उन साथियों पर
तू इतना बहक रहा है
जिनके बहकावे में आकर।
उस समय तू शरण में होगा
उन कुत्तों की, जो तुम्हारे
मांस को चीथ चीथ कर
वो वहाँ पर खा जाएंगे।
तिरस्कार पूर्ण संवाद ये
श्री कृष्ण का सुनकर दूत वो
अपने स्वामी के पास गया
सब कुछ सुना दिया उसको।
उधर कृष्ण सवार हुए रथ पर
काशी पर चढ़ाई कर दी
क्योंकि वह पौण्ड्रक उस समय
मित्र के पास रह रहा था वहीं।
महारथी पौण्ड्रक भी सेना लेकर
नगर के बाहर आ गया
काशीराज भी सहायता के लिए
सेना लेकर के पीछे आया।
श्री कृष्ण ने जब पौण्ड्रक को देखा
शंख, चक्र, गदा, धनुष धारण किए
वक्षसथल पर बनावटी कौस्तुभमणि
वनमाला भी लटकी हुई उसके।
पहन रखे पीले वस्त्र थे
गरुड़ का चिन्ह रथ की ध्वजा पर
सारा का सारा वेश बनावटी
कृष्ण लगे वो जिसे देखकर।
अपने अस्त्र शस्त्र से कृष्ण ने
उसकी सेना को तहस नहस किया
और तब भगवान कृष्ण ने
पौण्ड्रक को ये कहा था।
‘ पौण्ड्रक, दूत से कहलाया तुमने
मेरे चिन्ह, अस्त्र छोड़ दो
लो मैं छोड़ रहा हूँ अब
तुम्हारे ऊपर उन अस्त्रों को।
झूठ मूठ मेरा नाम रख लिया
उन नामों को छुड़ाऊँगा तुमसे
और तुम्हारी शरण में आ जाऊँ
तूने ये भी जो कहा था मुझसे।
तो पौण्ड्रक यदि मैं तुमसे
युद्ध ना कर सका तो
तेरी शरण ग्रहण करूँगा
कृष्ण ने कहा ये पौण्ड्रक को।
ये कहकर चक्र से फिर
सिर उतार लिया पौण्ड्रक का
काशीनरेश का भी सिर उतारकर
काशीपुरी में गिरा दिया।
परीक्षित, पौण्ड्रक भगवान के रूप का
करता रहता था चिन्तन तो
उसके सारे बंधन कट गए इससे
जिस भाव से भी करता था वो।
बनावटी वेष धरता कृष्ण का
बार बार स्मरण उनका करता
इसी कारण से पौण्ड्रक
भगवान के सारूप्य को प्राप्त हुआ।
उधर काशी के राजमहल के
दरवाज़े पर मुंड देखकर
लोग वहाँ संदेह करने लगे
कि यह है किसका सर।
जब पता चला काशीनरेश ये
सब लोग विलाप करने लगे थे
काशीनरेश का पुत्र सुदक्षिण
उसने निश्चय किया ये।
पितृघाती को मारकर मैं
पिता के ऋण से उऋण होऊँगा
शंकर जी को प्रसन्न करने को
उनकी आराधना करने लगा।
शंकर जी प्रसन्न हो गए
उसको तब वर माँगने को कहा
कहे वो प्रभु उपाय बतलाइए
मेरे पितृघाती के वध का।
भगवान शंकर कहें फिर उससे
ब्राह्मणों के साथ मिलकर यज्ञ करो
आराधना करो अभिचार विधि से और
उसमें से जो अग्नि प्रकट हो।
उसका प्रयोग करके तुम
संकल्प सिद्ध कर लेना अपना
नियम ग्रहण किए सुदक्षिण ने
कृष्ण के लिए अभिचार करने लगा।
अभिचार ख़त्म होते हो कुण्ड से
अतिभीषण अग्नि प्रकट हुआ
लपटें निकल रही थीं उसमें से
वेग से धरती को कंपाता हुआ।
दशों दिशाओं को दग्ध करता हुआ वो
बहुत से भूत भी उसके साथ थे
द्वारका के जब पास आ पहुँचा
द्वारका वासी बहुत डर गए।
श्री कृष्ण के पास सब पहुँचे
प्रार्थना की अपनी रक्षा के लिए
कृष्ण कहें मैं रक्षा करूँगा
डरो मत तुम सब इससे।
भगवान कृष्ण जान गए कि
काशी से चली माहेश्वरी कृत्या ये
उसके प्रतिकार के लिए
सुदर्शन को आज्ञा दी उन्होंने।
सुदर्शन ने जाकर फिर वहाँ
कुचल दिया अभिचार अग्नि को
अग्नि वहाँ से काशी लौट गयी
जला दिया ऋत्विज और सुदक्षिण को।
इस प्रकार उसका अभिचार ही
विनाश का कारण बना उसी के
कृत्या के पीछे सुदर्शन भी आया
काशी नागरी को जला दिया उसने
