श्रीमद्भागवत -२१७ ; वर्षा और शरद ऋतु का वर्णन
श्रीमद्भागवत -२१७ ; वर्षा और शरद ऋतु का वर्णन
श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित
सुनकर कथा प्रलम्बासुर और दावानल की
बहुत ही विस्मय से भर गए
बड़े बूढ़े गोप गोपियाँ भी।
उन सभी को ये लगा कि
कृष्ण बलराम के वेष में
कोई बड़े देवता ही हैं
पधारे जो उनके व्रज में।
शुभागमन हुआ फिर वर्षा ऋतु का
बादल, वायु, चमक, कड़क से
आकाश क्षुब्ध सा दिखने लगा
घिर आए घने बादल आकाश में।
बिजली भी कौंधने लगी
सूर्य, चन्द्रमा, तारे ढके रहते
सूखी पृथ्वी जो जेठ असाढ़ में
हरी भरी हो गयी वो जल से।
ग्रह तारों को बादल ढक लेते
परन्तु जुगनू चमकने लगते हैं
पहले चुपचाप जो सो रहे थे
मेंढक वो टर्र टर्र करने लगते हैं।
जेठ असाढ़ में जो सूख गयीं थीं
उमड़ रही छोटी नदियां वो
तटों के बाहर बहने लगीं
भरे अनाजों से, खेत जो।
मोरों का रोम रोम खिल उठा
इंद्रधनुष शोभायमान आकाश में
वृक्ष जो पहले सूख गए थे
सज धज गए पत्तों, फूलों से।
उसी वन में विहार करने को
संग ग्वाल बालों गोपियों के
राम और श्याम ने प्रवेश किया
अपार सुंदर उस वृन्दावन में।
वर्षा ऋतु के बीत जाने पर
शारद ऋतु भी आ गयी
आकाश में बादल नहीं रहे
धीमी गति से वायु बह रही।
जल भी निर्मल हो गया
और कमलों की उत्पत्ति से
सहज स्वच्छता प्राप्त कर ली
नदिया, जलाशयों के जल ने।
समुद्र का जल शांत हो गया
कड़ी धूप होती थी दिन में
परन्तु लोगों का संताप हर लेते
चन्द्रमा रात्रि के समय।
मेघों से रहित आकाश रात में
जगमगाये तारों की ज्योति से
और सूर्योदय होते ही
कई प्रकार के कमल खिल गए।
खेतों में अनाज पाक गए
और अत्यंत सुशोभित होने लगी
कृष्ण बलराम की उपस्थिति में
इस ऋतु में ये पृथ्वी।