श्रीमद्भागवत -१४४; मानवधर्म, वर्णधर्म और स्त्रीधर्म का निरूपण
श्रीमद्भागवत -१४४; मानवधर्म, वर्णधर्म और स्त्रीधर्म का निरूपण
युधिष्ठिर ने नारद जी से पूछा
अब मैं श्रवण करना चाहता हूँ
वर्ण, आश्रमों के सदाचार के साथ
मनुष्यों के सनातन धर्म का ।
क्योंकि धर्म से ही मनुष्य को
प्राप्ति होती ज्ञान, भगवान की
आप स्वयं ब्रह्मा जी के पुत्र
और आप हो खान गुणों की ।
धर्म के गुप्त से गुप्त रहस्य जो
आप जानते जैसा उनको
और कोई वैसा न जान सके
ये सुन नारद कहें युधिष्ठर को ।
युधिष्ठर, ये अजन्मा भगवान ही
मूल कारण हैं धर्मों के
अवतीर्ण हो बद्रिकाश्रम में तप करें
पुत्र धर्म और दक्ष पुत्री मूर्ती से ।
सनातन धर्म का वर्णन करता हूँ
मुख से सुने हुए उन्ही के
धयाके उन नारायण भगवन को
नमस्कार उनको मैं करके ।
युद्धिष्ठर, शास्त्रों में कहे गए
तीस लक्षण हैं धर्म के
सत्य, दया, तपस्या, शौच
संयम, अहिंसा और त्याग के जैसे ।
यही तीस प्रकार के आचरण
परम धर्म है सभी मनुष्यों का
इसके पालन से प्रसन्न हों
भगवान, हमारे सर्वात्मा ।
जिनके वंश में अखंड रूप से
संस्कार हैं होते आये
संस्कार के योग्य स्वीकार किया है
और जिन्हें ब्रह्मा जी ने ।
उन्हें हम द्विज कहते हैं
और इन शुद्ध द्विजों के लिए
यज्ञ, अध्ययन, दान, ब्रह्मचर्य आदि
विशेष कर्मों का विधान हैं, आश्रमों के ।
अध्ययन और अध्यापन करना
दान लेना और दान देना है
यज्ञ करना और कराना
ये छ कर्म ब्राह्मणों के हैं ।
क्षत्रियों को दान नहीं लेना चाहिए
निर्वाह होता है क्षत्रियों का
यथायोग्य कर और दण्ड लेकर
सबसे, बस ब्राह्मणों के सिवा ।
ब्राह्मणवंश का अनुयायी रहकर
गोरक्षा, कृषि एवं व्यापार से
जीविका अपनी चलानी चाहिए
वैश्य को इन सब कर्मों से ।
शूद्र का ये धर्म है
सेवा करे वो द्विजातिओं की
और उसका स्वामी करता
निर्वाह जीविका का उसकी ।
शम, दम, तप. शौच, संतोष
क्षम, सरलता, ज्ञान, दया ये
भगवानपरायणता और सत्य
ब्राह्मणों के ये लक्षण हैं ।
युद्ध में उत्साह, वीरता, धीरता
तेजस्विता, त्याग, मनोजय, क्षमा ये
ब्राह्मण के प्रति भक्ति, अनुग्रह और
प्रजा की रक्षा, लक्षण क्षत्रिय के ।
देवता, गुरु, भगवान के प्रति भक्ति
लगना अर्थ, धर्म और काम की रक्षा में
आसक्तिता, उद्योगशीलता और व्यावहारिक निपुणता
वैश्य के हैं सब लक्षण ये ।
पवित्रता, निष्कपट स्वामी की सेवा
विनम्र रहना सामने अन्य वर्णों के
चोरी न करना, गो, ब्राह्मणों की सेवा
ये सब लक्षण हैं शुद्र के ।
पति सेवा, प्रसन्न रखना उसे
उसके नियमों की रक्षा करना
पति को ही ईश्वर माने वो
धर्म है ये उन पवित्र स्त्रियों का ।
साध्वी स्त्री को चाहिए कि
पति की इच्छाओं को पूर्ण करे
विनय, इन्द्रिय संयम, प्रिय वचनों से
प्रेमपूर्वक पति की सेवा करे ।
जो पति की भगवान समझकर
सेवा करे पतिपरायण हो
पति वैकुण्ठ को प्राप्त करता
लक्ष्मी जी समान रहे उसके साथ वो ।
वेददर्शी ऋषि मुनियों ने
अनुसार मनुष्य के स्वभाव के
धर्म की व्यवस्था की है
अलग अलग युग में उन्होंने ।
कल्याणकारी लोक परलोक में
वही धर्म है मनुष्य के लिए
किसी वर्ण का लक्षण हो दूसरे वर्ण में तो
उसी वर्ण का उसे समझाना चाहिए ।
