श्रीमद्भागवत -१३६ ;हिरण्यकशिपु की तपस्या और वर प्राप्ति
श्रीमद्भागवत -१३६ ;हिरण्यकशिपु की तपस्या और वर प्राप्ति
नारद ने कहा, युधिष्ठर
हिरण्यकशिपु ने तब विचार किया ये
संसार का एक छत्र सम्राट बनूँ
जिससे कोई सामने खड़ा न हो सके।
अजर, अमर होने के लिए
मंदराचल में करने लगा तपस्या
पैर के अंगूठे के बल
पृथ्वीपर खड़ा हो गया।
जब वह तपस्या में संलग्न हुआ
देवता लोग प्रतिष्ठित हो गए
पुनः अपने अपने पदों पर
और अपने अपने स्थानों में।
बहुत दिन तपस्या के बाद में
तपस्या की आग धुएं के साथ में
सिर में से निकलने लगी उसके
चारों और फेल गयी ये।
ऊपर नीचे अगल बगल के
लोकों को जलाने लगी थी
नदी, समुन्द्र खोलने लगे
पृथ्वी डगमगाने लगी थी।
ग्रह और तारे टूटने लगे
आग लग गयी दसों दिशाओं में
देवता जलने लगे लपटों में
ब्रह्मा जी से प्रार्थना करने लगे।
हे ब्रह्माजी, हम जल रहे हैं
हिरण्यकशिपु के तप की ज्वाला से
अब हम स्वर्ग में नहीं रह सकते
बाकी सब कुछ आप भी हैं जानते।
वह तपस्या की शक्ति से
पाप पुण्य के नियमों को पलट दे
संसार में ऐसा उलट फेर करे
पहले कभी नहीं हुआ हो जैसे।
ऐसा हठ कर हिरण्यकशिपु है
जुटा हुआ घोर तपस्या में
आप तीनों लोकों के स्वामी
जैसा उचित समझें, वो करें।
हे युधिष्ठर, जब देवताओं ने
ब्रह्मा जी को निवेदन किया ये
भृगु और दक्ष के साथ ब्रह्मा जी
हिरण्यकशिपु के आश्रम पर गए।
दीमक, मिट्टी, घास, बांसों से
सारा शरीर ढका था उसका
बादलों से ढके सूर्य समान वो
तपस्या के तेज से लोकों को तपा रहा।
उसे देख विस्मित हुए ब्रह्मा
हँसते हुए कहा, बेटा उठो
तुम्हारी तपस्या सिद्ध हो गयी
वर मांग लो, जो इच्छा हो।
हड्डीओं के सहारे प्राण खड़े हैं
कठिन तपस्या तूने है की
ऐसी पहले किसी ऋषि ने की नहीं
न करेगा कोई आगे भी।
इस तपोनिष्ठा से तूने
मुझे अपने वश में कर लिया
कमंडलु से फिर ब्रह्मा जी ने
उसके शरीर पर जल छिड़क दिया।
जल छिड़कने से वह दैत्य
उठ खड़ा हुआ मिट्टी के बीच से
फिर से वो बलवान हो गया
शक्ति आ गयी इन्द्रियों में।
वज्र के समान कठोर अंग हुए
देखा कि ब्रह्मा जी खड़े हैं हंस पर
नमस्कार किया, स्तुति करने लगा
सिर को वो पृथ्वीपर रखकर।
हिरण्यकशिपु कहे कि आप सृष्टि की
रचना, रक्षा, संहार करते हैं
आप श्रेष्ठ समस्त वारदाताओं में
मुझे जो वर देना चाहते हैं।
तो आप ऐसा कर दीजिये
कि आपके बनाये हुए प्राणी जो
चाहे वो मनुष्य हों या पशु
प्राणी हों या अप्राणी हों।
देवता हों या हों वो दैत्य
अथवा कोई वो नागादि हों
इन सब में से किसी से भी
मेरी कभी भी मृत्यु न हो।
भीतर, बाहर, दिन में, रात्रि में
पृथ्वी या आकाश में कहीं
किसी जीव से, अस्त्र, शस्त्र से
हो कभी मेरी मृत्यु नहीं।
एक छत्र सम्राट होऊं मैं
कोई सामना न कर सके युद्ध में
आप जैसी महिमा हो मेरी
इन्द्रादि समस्त लोकपालों में।
तपस्विओं और योगियों को
अक्षम ऐश्वर्य प्राप्त जो
आप ऐसा कर दीजिये कि
वैसा मुझे भी प्राप्त हो।
