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Namrata Saran

Classics

4  

Namrata Saran

Classics

माँ तुम क्या हो

माँ तुम क्या हो

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माँ तुम क्या हो

कैसे तुम्हारी 

परिभाषा पूरी हो 

तुम संसार की धूरी हो 

पूरा का पूरा 

तुम्हें समझ पाना 

क्या संभव है ? 


माँ, क्या तुम मेरी भाषा हो 

या मेरी सोच हो ?

कभी लगता है यूं

तुम मेरी चोटी में बंधी रिबन हो 

मेरी मुस्कराहट हो 

या मेरा आंसू


मुझे याद है आज भी 

मेरे पैर की मोच

उसका दर्द जो मुझसे ज्यादा 

तुम्हारे चेहरे पर था


तुम्हारी वो बौखलाहट

कि,मेरा वो दर्द तुम्हे क्यों नहीं मिला 

अच्छी तरह याद है तुम्हारा 

एक पैर से दूसरे पैर को दबाना

मानो, जितना दर्द मुझे हो रहा है 

उतना ही तुम्हे भी महसूस हो सके 


माँ, तुम क्या हो ?

इतिहास हो, भूगोल, साहित्य 

या फिर एक फिलासफी

तुम्हारा कौन सा रूप में 

पूरी तरह समझ सकी

क्या, मैं तुम्हें आधा समझ सकी 

या एक चौथाई 

या फिर एक बिंदु भर भी नहीं


तुममे तो सारा ब्रह्माण्ड समाया है

कैसे संभव है, तुम्हें पूरा पढ़ पाना

सृष्टि का हर अध्याय

तुम्हीं से तो शुरू होता है

और अंत तो तुम्हारा है ही नहीं 

माँ, तुम तो अनंत हो


तो माँ अब तुम ही कहो 

कैसे मैं तुम्हे पूरा पढूं

कैसे जान सकूं तुम्हारी गहराई


मेरे बुखार से तपते सिर पे 

अपनी हथेली यूं रखना 

मानो सारा ताप तुम खींच लोगी

और सच में माँ 

तुम्हारे स्पर्श में कैसी शीतलता थी 

कहाँ से लाती थी तुम ये जादू 

जो मैं आज तक नहीं समझ सकी 


माँ,कौनसी विधा थी तुम्हारे पास

कि मेरी हर परेशानी का हल 

तुम्हारे पास ही होता था

क्या था तुम्हारे पास 

क्या अलादीन का चिराग 

या चाचा चौधरी का दिमाग


माँ, क्या होती है 

इसका एक ही जवाब समझ में आया

ईश्वर को जब अपना रूप 

दिखाने को मन में आया 

उसने धरती पे "माँ " को बनाया।


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