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Arpit Shukla

Classics

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Arpit Shukla

Classics

वाक़िफ

वाक़िफ

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छाए हैं अंधेरे, कैसे भला आफताब करूं

चेहरों को किस-किसके बेनक़ाब करूं


मेरी ज़िंदगी को तमाशा बनाने वालों

ख़ुदा बैठा है ऊपर, मैं क्या हिसाब करूं


आखिर कब्र में ही होंगे ज़मीं औ आसमां

क्यों न जिंदगी के पन्ने जोड़ किताब करूं


कदमों में महबूब के झुकना कोई गैरत तो नहीं

ये इश्क-ए-दस्तूर है मैं क्यों इसे खराब करूं


जिसकी फितरत से अब तक वाक़िफ नहीं हूँ

उसके सवालों का भला मैं क्या ज़वाब करूं।


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