वाक़िफ
वाक़िफ
छाए हैं अंधेरे, कैसे भला आफताब करूं
चेहरों को किस-किसके बेनक़ाब करूं
मेरी ज़िंदगी को तमाशा बनाने वालों
ख़ुदा बैठा है ऊपर, मैं क्या हिसाब करूं
आखिर कब्र में ही होंगे ज़मीं औ आसमां
क्यों न जिंदगी के पन्ने जोड़ किताब करूं
कदमों में महबूब के झुकना कोई गैरत तो नहीं
ये इश्क-ए-दस्तूर है मैं क्यों इसे खराब करूं
जिसकी फितरत से अब तक वाक़िफ नहीं हूँ
उसके सवालों का भला मैं क्या ज़वाब करूं।