हाथों की लकीरों में
हाथों की लकीरों में
हाथों की लकीरों में,
तक़दीर ने लिखा है कुछ, समझ नहीं पाती हूँ इन्हें;
ना जाने कुछ लकीरें दूसरी लकीरों को काटती हैं क्यूँ,
लगता है ऐसे
परिस्थितियाँ मेरी खुशियों को काट रहीं हों जैसे,
कोई लकीर सीधी सपाट चली जा रही है,
हथेली के इस छोर से उस छोर तक,
जैसे दुख में पीछा छोड़ दिया हो सबने उसका,
छोड़ गए सब साथी उसको तकलीफों मेंI
कहीं त्रिभुज भी बना है यारों,
कहा किसी ने पैसों की कोठरी है ये,
ढूँढ रही हूँ कहाँ छिपी है ये अभी,
मिलेगी तो बताऊँगी मैं आपको भी;
जीवन-रेखा कहते हैं जिसे लोग,
बहुत छोटी और कटी-पिटी है,
कहा था बचपन में मेरे पापा ने हाथ देखकर,
"बच्ची, तू ५०-५५ साल तक ही जीएगीI"
सोचा था मैंने तब बहुत है ज़िंदगी इतनी,
बहुत जीकर मुझे करना भी है क्या,
पर देख लो ६० की होने वाली हूँ और अब भी ज़िंदा हूँ;
लगता है ये लकीरें मेरी सेहत देख घबरा गईं,
मेरी इच्छा-शक्ति और मस्ती देख कर
बोली मुझे, "जी ले तू जितना चाहे जीI"