शोकपत्र
शोकपत्र
अख़बार कहां
एक शोकपत्र था,
भरा था नन्हीं नाजुक
कलियों की चीखों से,
वो चीखें
जो झकझोर देती हैं भीतर तक
हिला देती हैं इंसान
की आत्मा को
पढ़ते हुए रूह
कांप जाती है,
क्या बीतती होगी
जब से पांव तक
वासना में लिपटे दरिंदे
नोंचते होंगे कोमल
बदन को
चाय का अगला
घूंट हलक से
नीचे नहीं उतरा,
इक दुआ निकली
खूबसूरत जीवन की
न्याय की
जो मिल सके उन्हें
जिसकी हक़दार हैं वो।
