Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!
Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!

Ajay Singla

Classics

4  

Ajay Singla

Classics

श्रीमद्भागवत -११५ ;अजामिलोपाख्यान का आरम्भ

श्रीमद्भागवत -११५ ;अजामिलोपाख्यान का आरम्भ

6 mins
529


राजा परीक्षित पूछें, हे भगवन

नरकों का वर्णन किया आपने

अब आप ये उपाय बताईये

जिससे नरकों में ना जाना पड़े।


शुकदेव जी कहें, ये मनुष्य

पाप करे मन, वाणी, शरीर से

इस जन्म में प्रायश्चित ना करे तो

भयंकर नरकों में जाना पड़े उसे।


रोग एवं मृत्यु से पहले

इसलिए बड़ी सावधानी से

शीघ्र से शीघ्र पापों का

प्रायश्चित उसे कर लेना चाहिए।


राजदंड, समाजदण्ड आदि का 

मनुष्य के जो लौकिक कष्ट हैं

या नरकगमन आदि भी

जो कष्ट पारलौकिक हैं।


राजा परीक्षित पूछें, हे भगवन

इन कष्टों कको जानकर भी कि

पाप ही मूल कारण है

मनुष्य फिर भी समझे न ये।


पाप कामनाओं से विवश होकर वो

वैसे ही कर्मों में प्रवृत्त हो जाता

ऐसे मनुष्य में पापों का

प्रायश्चित कैसे संभव हो पाता।


कभी प्रायश्चित के द्वारा ये

 छुटकारा भी पा ले पापों से

कभी उन्हें फिर करने लगता

पड़कर वासनाओं में फिर से।


शुकदेव जी कहें, हे राजन

कर्म के द्वारा कर्म का

निर्बीज नाश नहीं होता क्योंकि

अज्ञानी अधिकारी है कर्म का।


पाप वासनाएँ नहीं मिट पातीं

अज्ञान रहने के कारण ही

इसीलिए सच्चा प्रायश्चित

जो है वो बस तत्वज्ञान ही।


केवल सुपथ का सेवन करे जो

वश में ना कर सकें रोग उसे

जो पुरुष नियमों का पालन करे

वो मुक्त हो जाए वासनाओं से।


तत्वज्ञान प्राप्त करने से

फिर से पुरुष समर्थ हो जाता

धर्मज्ञ और श्रद्धावान पुरुष

पापों से फिर मुक्ति पाता।


तपस्या, ब्रह्मचर्य, इन्द्रियदमन, दान

मन की स्थिरता, पवित्रता बाहर भीतर की

और सत्य, यम, नियम वो साधन

नष्ट करें बड़े पापों को भी।


भक्तजन रहते हैं सदा

भगवान की शरण में ही जो

अपनी भक्ति के द्वारा ही

अपने पापों को भस्म करें वो।


संसार में भक्ति का पंथ ये

भयरहित और सर्वश्रेष्ठ है

भगवत विमुख को पवित्र करने में

बड़े बड़े प्रायश्चित असमर्थ हैं।


भगवान कृष्ण के चरणविन्दों का

जिस मनुष्य ने अपने मन से

एक बार है पान कर लिया

प्रायश्चित कर लिए सारे उसने।


यमराज और जो दूत हैं उनके

सपने में भी वो उन्हें ना देखें

महात्मा लोग इस विषय में

एक प्राचीन इतिहास हैं कहते।


इस इतिहास में संवाद है

विष्णु और यमराज के दूतों का

मैंने ज्ञानमयी कथा सुनी ये

वही कथा मैं तुम्हें सुनाता।


दासीपती ब्राह्मण रहता था

एक कान्यकुब्ज नगर में

नाम उसका अजामिल था

रहता था वो दासी के संग में।


इससे दूषित होने के कारण

सदाचार था नष्ट हो गया

कभी बटोहियों को लूटता

कभी धन लूटता देकर धोखा।


इस प्रकार वहां रहकर वो

पालन करता दासी के बच्चों का

इसी में काफी उम्र बीत गयी

हो गया अट्ठासी वर्ष का।


बूढ़े अजामिल के दस पुत्र थे

सबसे छोटा नारायण था

माँ बाप बड़ा प्यार थे करते

अजामिल का हृदय उसी में लगा था।


बालक के स्नेह बंधन में बंधा वो

अतिशय मूढ़ था हो गया

मृत्यु उसके सिर पर आ पहुंची

इस बात का उसको पता न चला।


पुत्र नारायण के बारे में सोचे

मृत्यु का समय आया जब

तीन यमदूत लेने आए हैं

उसने फिर देखा वहां तब।


हाथ में उनके फाँसी है

टेढ़े मेढ़े मुँह हैं उनके

अत्यंत भयंकर शक्ल है उनकी

और शरीर के रोम खड़े हुए।


उस समय वो बालक नारायण

खेल रहा था कुछ दूरी पर

ऊँचे स्वर में कहा नारायण

अजामिल ने अत्यंत व्याकुल होकर।


भगवान के पार्षदों ने देखा

मरने के समय मनुष्य ये

हमारी स्वामी का नाम ले रहा

झटपट पहुंचे वहां वेग से।


उस समय दूत यमराज के

दासीपति अजामिल के शरीर से

सूक्ष्म शरीर को खींच रहे थे

रोक दिया विष्णु दूतों ने।


निषेध आज्ञा का धर्मराज की

करने वाले तुम कौन हो

धर्मराज के दूत ये पूछें

तुम सभी किसके दूत हो।


तुम लोग कहाँ से आए

और हमें क्यों रोक रहे हो

आप देवता, उपदेवता कोई

या कोई सिद्धदेव हो।


तुम सभी की चार भुजाएं

सिर पर मुकुट, कुण्डल कानों में

तुम हमें क्यों रोक रहे

हम हैं सेवक धर्मराज के।


ये सुन नारायण पार्षद कहने लगे

धर्मराज दूत अगर तुम सचमुच में

धर्म का तुम लक्षण बताओ

और धर्म का तत्व सुनाओ हमें।


दण्ड किस प्रकार दिया जाता है

और पात्र कौन हैं दण्ड के

सभी पापाचारी दण्डनीय हैं

या कुछ ही हैं उनमें से।


यमदूत बोले कि वेदों ने

निधान किया है जिन कर्मों का

वो कर्म ही धर्म हैं

अधर्म हैं वो, जिनका निषेध किया।


रजोमय, सत्वमय, और तमोमय

सभी पदार्थ और सभी प्राणी भी

इस जगत में स्थित रहते हैं

परम आश्रय भगवान में ही।


गुण, नाम, कर्म और रूप अनुसार ही

वेद विभाजन करते उनका

भगवान के स्वयं प्रकाश ज्ञान हैं

वेद स्वयं स्वरूप भगवान का।


जीव शरीर या मनोवृतिओं से

कर्म करता है वो जितने भी

उन सब के साक्षी रहते हैं

सूर्य, आकाश, वायु, अग्नि।


और इन्द्रियां, संध्या, चन्द्रमाँ, रात, दिन

दिशाएं, जल, पृथ्वी, काल, धर्म

इनके द्वारा अधर्म का पता चले

निर्णय होता जो दण्ड का पात्र।


पाप कर्म करता जो मनुष्य

कर्मों के अनुसार दण्डनीय होता

प्राणी जो भी कर्म करता है

गुणों से सम्बन्ध उसका रहता।


इसीलिए सभी मनुष्यों से

पाप और पुण्य तो हैं होते ही

और देहवान होकर पुरुष भी

कर्म किये बिना रह सकते नहीं।


धर्म, अधर्म इस लोक में मनुष्य

जिस प्रकार और जितना करे

परलोक में जाकर उस मनुष्य को

उतना और वैसा ही फल मिले।


तीन प्रकार के प्राणी इस लोक में

सत्व, रज, तम गुणों के भेद से

पुण्यात्मा, पापात्मा और तीसरे

युक्त पाप पुण्य दोनों से।


परलोक में भी ऐसे ही उनकी

विविधता का अनुमान किया जाता है

सुखी मनुष्य या दुखी मनुष्य

या सुख, दुःख दोनों से युक्त है।


वर्तमान समय ही करा देता

अनुमान जैसे भूत और भविष्य का

अनुमान कराते पाप पुण्य इस जन्म के 

भूत, भविष्य के जन्मों के पाप पुण्यों का।


अंतकरण में हैं विराजते सबके

हमारे स्वामी यमराज जी हैं जो

अपने मन से ही सबके

पूर्वरूप को देख लेते वो।


साथ में उनके भावी स्वरूपों का

भी विचार कर लेते हैं वो

जीव जो है सब भूल जाता है

अपने पूर्वजन्मों की याद को।


वर्तमान शरीर के सिवा

पहले और पिछले शरीरों के

सम्बन्ध में सब भूल है जाता

कुछ भी याद न रहता है उसे।


इस शरीर में पांच कर्मेन्द्रियां

इनसे सभी काम वो करता

पांच ज्ञानेन्द्रीयों से अनुभव करे

रूप, रस आदि पांच विषयों का।


सोलहवां मन, सत्रहवाँ वो स्वयं

मिलकर अकेले ही भोगता वो

मन, कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियां

इन तीनों के विषयों को।


यह लिंगशरीर अनादि है जीव का

सोलह कलां और तीन गुण इसके

हर्ष, शोक, पीड़ा यही देता

डालता जन्म - मृत्यु के चक्र में।


जो जीव विजय न प्राप्त करे

काम, क्रोध, लोभ, मोह ,मद पर

अनेकों कर्म करने पड़ते उसे

इच्छा भी उसकी न रहने पर।


विभिन्न वासनाओं के अनुसार ही

वो अनेकों कर्म है करता

रेशम के कीड़े समान अपने को

कर्म के जाल में है जकड़ता।


शरीरधारी जीव नहीं रह सकता

एक क्षण भी बिना कर्म किये

बलपूर्वक उससे कर्म कराते

स्वाभाविक गुण प्रत्येक प्राणी के।


पूर्वजन्म के पाप, पुण्यमय संस्कारों

अनुसार सूक्ष्म, स्थूल शरीर धारण करे

कभी स्त्री कभी पुरुष बनातीं

स्वाभाविक और प्रवृत वासनाएं उसे।


प्रकृति का संसर्ग होने से

भगवान के भजन से दूर पुरुष हो

अपने वास्तविक स्वरूप से विपरीत

लिंगशरीर मान बैठा अपने को।


देवताओं, आप जानते ही हैं कि

अजामिल बड़ा शास्त्रज्ञ था

शील, सद्गुणों का खजाना

सत्यनिष्ठ और पवित्र था।


गुरु, अग्नि, वृद्ध पुरुषों की 

सेवा में लगा, अहंकार रहित था

किसी केगुण में दोष न ढूंढे

समस्त प्राणीयों का हित चाहता।


एक दिन पिता के उपदेश से

फूल, कुश लेने गया था वन में

घर की और आ रहा था जब वो

देखा ये रास्ते में लौटते समय।


देखा एक भ्रष्ट शूद्र जो

बहुत कामी और निर्लज्ज है

शराब पीकर किसी वैश्या के संग

वन में कर रहा विहार है।


वैश्य भी मतवाली हो रही

अर्धनग्न थी शराब पीकर वो

शूद्र उसे कभी आलिंगन करता

प्रसन्न करे उसको गाकर वो।


इस अवस्था में देखकर उनको

सहसा मोहित हो गया वो

काम ने था वश में कर लिया

उस समय ब्राह्मण अजामिल को।


यद्यपि अपने धैर्य और ज्ञान से

चेष्टा की मन को रोकने की

पर असमर्थ रहा रोकने में वो

काम ने ग्रास लिया उसके मन को भी।


सदाचार, चेतना नष्ट हो गए

उसी वैश्या का चिंतन करने लगा

सुंदर वस्त्र, आभूषण दे उसको

धर्म से था वो विमुख हो गया।


पिता की सारी संपत्ति भी

उस ने दे दी उस वैश्या को

उसी प्रकार की चेष्ठा करता

जिससे कि वो वैश्या प्रसन्न हो।


ऐसा लुभाया उस कुलटा ने उसे

परित्याग किया कुलीन पत्नी का

कुबुद्धि वो न्याय और अन्याय से

मिलता जो धन, उठा ले आता।


व्यस्त रहता था वैश्या के

बड़े कुटुम्भ का पालन करने में

स्वछन्द आचरण किया उस पापी ने

 शास्त्राज्ञा का उलंघन करके।


सत्पुरुषों के द्वारा जो निन्दित है

ऐसा जीवन व्यतीत किया इसने

बहुत दिनों तक उसी वैश्या के

मल समान अपवित्र अन्न से।


अब तक कोई प्रायश्चित भी न किया

अपने इन सब पापों का इसने

यमराज के पास जाकर फिर शुद्ध हो

जब दण्ड भोगेगा पापों का अपने।



Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Classics