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vijay laxmi Bhatt Sharma

Classics

5.0  

vijay laxmi Bhatt Sharma

Classics

उसने कहा

उसने कहा

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उसने धीरे से कहा

माँ

घिन्न है मुझे

उभरती बनती 

मेरी आकृति से।


आंकलन करते

उन चेहरों से

चीरती भयानक 

कामुक निगाहों से

मेरे शरीर की गंध से।


माँ क्या उन्हें पता नहीं

वो भी उसी मार्ग से आये

जिससे मैंने जन्म लिया

इन उभरती आकृतियों 

से ही उनका पोषण हुआ।


फिर क्यूँ

इतने विचलित

विकृत हैं ये

घिम्न है मुझे इनके

दोहरे अमर्यादित

अनुचित व्यवहार से।


बेटी तुम उभरती

इन आकृतियों से परे हो

गर्भ में भी कहाँ

सुरक्षित थीं

दरिंदे कब रिश्ते

समझ पाये हैं।


क्षणिक सुख की खातिर

कई खून बहाये हैं

माँ सी निडर

बनो तुम

करो दंश उनका

जो करें आंकलन

तुम्हारी आकृति का।


तुम्हारे अस्तित्व का

विजय निश्चित

तुम्हारी ही होगी

उठा त्रिशूल

करो अब 

नाश उनका।


निर्भय तुम विचरो

अभय ये वरदान

माँ का तुमको।


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