अंबर से बरसे बदरा
अंबर से बरसे बदरा
झूम रही है धरती, अंबर
अंबर से बरसे बदरा
सावन की पड़ी रिमझिम फुआरें
घुमड़ घुमड़ घन घन
मेघा गायें मल्हार।
ठंडी चले बयार
खिले खिले से पेड़, उपवन।
कोयल मोर पपीहा बोले
हो रहे हृदय पुलकित
कदंम्ब की छाँव में
कान्हा ने छेड़ी
बाँसुरी की मीठी तान।
राधिका हो गयी बावरी
भावों की गंगा,
जमुना मे मची हलचल
पीत पल्लव हिय के
उपवन हुए बसन्ती।
तरंगित हो उठी
प्रीत कोंपल नैनों में
बरसते सावन में
गोकुल में पड़ गये झूले
ये पावन महीना सावन का
हाथों मे छन -छन चुड़ियां पहन,
रचा कर मेहन्दी हाथों में
रंग बिरंगे परिधानों मे गोपियाँ।
पैरो में खनकाती, पायल
माथे पर चमकती बिंदिया
खिल उठी सब उमंगों में
झोंटे दे झूलें झूला
गाये सावन के गीत
झूम रही है धरती अम्बर।
पावन हो गयी धरा जब
राधा संग झूला झूलें मोहन
अलबेली सावन छटा
प्रेम रस मे भीगा मन मेरा
बोले कान्हा चितचोर।