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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

Classics

श्रीमद्भागवत - ११० ; शिशुमारचक्र का वर्णन

श्रीमद्भागवत - ११० ; शिशुमारचक्र का वर्णन

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शुकदेव जी कहें, हे राजन 

तेरह लाख योजन ऊपर सप्तऋषिओं के 

ध्रुव लोक है जिस को सभी 

भगवान का परमपद हैं कहते।


भगवद्भक्त उत्तानपाद के पुत्र 

विराजमान हैं वहां ध्रुव जी 

अग्नि, इंद्र, प्रजापति कश्यप और धर्म 

ये सब प्रदक्षिणा करते उनकी।


लोक कल्पपर्यन्त रहने वाले 

इन्ही के आधार पर स्थित हैं 

ग्रह, नक्षत्र अदि जो घुमते उनका 

इन को आधारस्तम्भ नियुक्त किया है।


एक ही स्थान पर रह कर ये 

होते है सदा प्रकाशित 

सारे नक्षत्र बाहर भीतर के क्रम से 

कालचक्र में घुमते कल्प के अंत तक।


ध्रुव लोक का ये आश्रय लेते 

प्रकृति और पुरुष के संयोगवश 

कर्मों के अनुसार ये चक्र काटते 

नहीं गिरते हैं ये पृथ्वी पर।


कोई कोई पुरुष इस ज्योतिष्चक्र का 

वर्णन करते शिशुमार के रूप में 

इसका मुख नीचे की और है 

शिशुमार ये है कुंडली मारे हुए।


इसके पूंछ के सिरे पर ध्रुव स्थित है 

अग्नि, इंद्र और धर्म मध्य में 

पूंछ की जड़ में धाता और विधाता 

सप्तऋषि इसके कटि प्रदेश में।


यह शिशुमार दाहिनी और से 

कुंडली मारे हुए है सिकुड़ कर 

ऐसी स्थिति में दाहिने भाग में इसके 

उत्तरायण के चौदह नक्षत्र।


दक्षिणायन के चौदह नक्षत्र 

हैं इसके बाएं भाग में 

मूल, पूर्वाषाढ़ा, उतराषाढ़ा का समूह 

अजवीथी है इसकी पीठ में।


पुनर्वसु और पुष्य नक्षत्र हैं 

दाहिने और बाएं कटितटों में 

आर्द्र और आश्लेषा नक्षत्र जो 

पीछे के दाहिने, बाएं चरणों में।


अभिजित, उतरषाढ़ा हैं इसके 

दाहिने और बाएं नथुनों में 

श्रवण और पूर्वाषाढा हैं 

दाहिने और बाएं नेत्रों में।


घनिष्ठा और मूल नक्षत्र हैं 

दाहिने और बाएं कानों में 

और जो ये आकाशगंगा है 

ये है इसके उदर में।


आठ नक्षत्र बायीं पसलिओं में 

मधा आदि दक्षिणायन के 

उत्तरायण के आठ मृगशिरा आदि 

विपरीत क्रम में दाहिनी पसलिओं में।


शतमिषा और ज्येष्ठा नक्षत्र क्रमशः 

दाहिने, बाएं कन्धों की जगह हैं 

ऊपर की थूथनी में अगस्त्य 

नीचे की ठोडी में नक्षत्र रूप यम हैं।


मुखों में मंगल, लिंगप्रदेश में शनि 

कवुद् में बृहस्पति, सूर्य छाती में 

हृदय में नारायण, मन में चन्द्रमा 

नाभि में शुक्र, अश्वनीकुमार स्तनों में।


बुद्ध इसके प्राण और अपान में 

राहु शोभित हैं इसके गले में 

समस्त अंगों में हैं केतु 

सम्पूर्ण तारागण इसके रोमों में।


भगवान विष्णु का सर्वदेवमय स्वरूप ये 

पवित्र, मौन होकर नित्यप्रति 

दर्शन करते हुए चिंतन करके 

करनी चाहिए हमें उनकी स्तुति।



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