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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -१० देवऋषि नारद का पूर्वचरित्र

श्रीमद्भागवत -१० देवऋषि नारद का पूर्वचरित्र

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नारद कहे मैं एक कलप में 

था एक दासी का पुत्र 

ब्राह्मण प्रभु का भजन कर रहे 

मैं उनकी सेवा में तत्पर। 


यद्दपि मैं छोटा बालक था 

खेल कूद से दूर ही रहता 

चंचलता मेरे में नहीं थी 

आज्ञा अनुसार था सेवा करता। 


मुझसे विशिष्ट अनुग्रह करें वो 

शील स्वभाव देख कर मेरा 

उनकी जूठन खा खा कर 

ह्रदय शुद्ध हो गया था मेरा। 


भजन पूजन में रूचि हो गयी 

प्रतिदिन कथा मैं सुनूं कृष्ण की 

बुद्धि भी मेरी निश्चल हुई 

ह्रदय में मेरे आ गयी भक्ति। 


वहां से जब वो गए महात्मा 

ज्ञान दिया मुझे जाते जाते 

भगवान कृष्ण की माया सारी 

प्रभाव इसका मुझ को बतलाते। 


अपनी प्रेम भक्ति का दान दिया 

कृष्ण ने मुझपर कृपा की थी तब 

आत्मज्ञान मुझ को हुआ था 

ऐश्वर्य मुझ को दिया सब। 


व्यास जी कहें, हे नारद जी 

पूर्ण ज्ञान जो आपका, इससे 

कृष्ण कीर्ति का कीजिए वर्णन 

शांति मिले लोगों को जिससे। 


व्यास जी तब पूछे नारद से 

जब महात्मा चले गए थे 

क्या किया था उस समय फिर 

आप तो तब बहुत छोटे थे। 


कैसे शेष आयु बिताई 

कैसे शरीर का परित्याग किया 

काल तो सब कुछ नष्ट कर देता 

स्मृति को आपकी कैसे रहने दिया। 


नारद कहें मैं था पांच साल का 

दासी माँ का इकलौता बेटा था 

मेरे स्नेह में वो जकड़ी हुई 

मैं भी स्नेह बंधन में बंधा था। 


एक दिन माँ गयी गो दुहने को 

बाहर निकली थी वो रात में 

माँ को सांप ने डस लिया, तब 

चला गया मैं उतर दिशा में। 


कई वन, नदिया मार्ग में 

कई गांव, कई पर्वत देखे 

एक सघन वन मैं देखकर 

बैठ गया पीपल के निचे। 


महात्माओं से जैसा सुना था 

प्रभु चिंतन किया था तब मन में 

भक्ति भाव से जब पुकारा 

प्रभु प्रकट हो गए ह्रदय में। 


मैं अत्यंत शांत, शीतल हुआ 

जब मन में दिखी प्रभु की मूरत 

अचानक वो गायब हो गयी 

मैं हुआ बहुत ही चिंतित। 


चाहता था फिर वो स्वरुप दिखे 

यतन करने से नहीं दिखा जब 

अतृप्त होकर मैं आतुर हो गया 

भगवान की वाणी सुनी मैंने तब। 


इस जन्म में दर्शन न कर सको 

झलक दिखाई मैंने अपने रूप की 

ताकि तुम्हारे मन में हो इच्छा 

जागृत मुझे प्रापत करने की। 


मुझे प्रापत कर लोगे जब 

वासनाएं तुम्हे तब न घेरें 

क्षणभंगुर ये शरीर त्यागकर 

पार्षद हो जाओ तुम मेरे। 


दृढ निश्चय ये कभी न छूटे 

कि मुझे प्रपात हों हरी 

सृष्टि की प्रलय हो तब भी 

बनी रहे स्मृति तुम्हारी। 


नारद कहें स्मरण करूँ मैं 

प्रभु की लीला को, उनको ध्याऊँ 

आनंद से करता काल की प्रतीक्षा 

पृथ्वी पर विचरता जाऊं। 


ह्रदय मेरा शुद्ध हो गया 

प्रसन्न और स्थिर शांत मन 

आसक्ति सारी मिट गयीं 

हो गया मैं कृष्ण परायण। 


समय से तब मृत्यु भी आ गयी 

कल्प भी तब था ख़त्म हो गया 

ब्रह्मा जी के साथ में मेने 

प्रभु के ह्रदय में प्रवेश किया। 


नयी शृष्टि रचनी है अब 

जिस समय इच्छा करें ब्रह्मा 

और कई ऋषिओं के साथ में 

मैं भी तब प्रकट हो गया। 


विचरूँ तभी से तीनों लोकों में 

लीला वर्णन करूँ, वीणा लेके 

जब भी प्रभु का भजन करूँ मैं 

प्रभु ह्रदय में दर्शन देते। 


व्यास जी से फिर आज्ञा लेकर 

नारद वहां से चले गए जब 

शौनक जी पूछें सूत जी से कि 

व्यास जी ने फिर क्या किया तब। 


सूत जी बोले, सरस्वती के तट पर 

आश्रम में प्रभु का ध्यान लगाया 

उन्होंने भागवत की रचना की 

शुकदेव जी को शास्त्र पढ़ाया। 


शौनक बोले शुकदेव जी को तो 

उपेक्षा नहीं किसी वस्तु की 

आत्मा में ही रमन करें वो 

फिर किस लिए भागवत अध्ययन की। 


सूत जी बोले, जो लोग हैं ज्ञानी 

भगवान की भक्ति भी करें वो 

प्रभु के गुण इतने मधुर हैं 

अपनी और हैं खींच लेते वो। 



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