सहनशीलता।
सहनशीलता।
उठो जवानों भोर भई, क्यों पशुवत जीवन काट रहा।
भाग्य बनेगा निज कर्मों से, क्यों विवेक शून्य बन डोल रहा।।
सांसारिक विद्या जीवन की पूंजी ,पारलौकिक विद्या क्यों भूल रहा।
मोह-माया में इतना उलझा, पाप गठरिया क्यों लाद रहा।।
प्रेम,शांति,आनंद को पा ले, हाड़-मांस में क्या ढूंढ रहा।
अहंकार, बनावट और डबल करैक्टर, क्यों मकड़ जाल में उलझ रहा।।
दूर कर इन दुर्गुणों के कांटे, ईश्वरीय गुणों से क्यों भाग रहा।
पवित्र विचार, शुद्ध व्यवहार अपना ले, फिर भी क्यों नहीं संभल रहा।।
सत् के साकार श्री सद्गुरु बतलाते, उंगली उनकी क्यों नहीं थाम रहा।
जीवन धन्य पल भर में हैं करते, सत्संगत की राह क्यों नहीं पकड़ रहा।।
निष्काम होकर तुम सेवा कर ले, कड़े शब्द क्यों तू बोल रहा।
सद्गुरु से मोहब्बत आला इबादत, काम-वासना को तू सब समझ रहा।।
ईर्ष्या-द्वेष और क्रोध के कारण, प्रतिष्ठा का दामन पकड़ रहा।
"सहनशीलता" नीरज, तू पैदा कर ले, क्यों नरक का द्वार तू खोल रहा।।