नदी की आत्मकथा
नदी की आत्मकथा
नदी हूँ मैं
बहना मेरा अस्तित्व है
जिसकी जितनी ज़रूरत है
उसने उतना जाना मुझे
नहर से भला
कहाँ कोई अंजान है
जो प्यासे हो खेत
तो किसानों के प्राण हैं
मैं सरिता
सर-सर, कल-कल करती
मन की गहराईयों में
अठखेलियां करती हूँ
प्रवाहिनी बनकर
खुले आसमान के
अलिंगन में
सतत प्रवाह से
तैरने को तत्पर हूँ
तटिनी जो बनी मैं
राहियों का सेतु रही
संगम में डुबकी लिए बिना
मोक्ष कहाँ पाये कोई
क्षिप्रा ने
मेरी पहचान
तेज़ गति के
रूप में है दिलायी
मेरे जीवन की सार्थकता
तप करके पूर्ण हुई
दूसरों की तृप्ती कर
मेरी मंज़िल सफल हुई
