अनजान रसिक

Classics

4.5  

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शिव पार्वती का अनूठा विवाह

शिव पार्वती का अनूठा विवाह

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महाशिवरात्रि के इस पतित-पावन त्यौहार के अवसर पर,

शिव - पार्वती के विवाह का विस्तृत वर्णन करती हूँ आज ,

गुफा-कंदरा, के वासी ,एक सीधे-साधे तपस्वी ने कैसे माता पार्वती का मन हर लिया ,

महलों में ठाट- बाट से पली एक राजकुमारी को वर कर अपनी जीवन-संगिनी बना लिया।

इस कहानी की शुरुआत तो तब हुई

जब पुत्री के मोह में जकड़े राजा दक्ष ने जमाई को स्वीकारने में ना-नुकुर तो बहुत की

पर भाग्य के लेखे-जोखे के सौजन्य से और ब्रह्मा जी के सरपरस्त हाथ और आशीष से ,

सात जन्मों के लिए देवों के देव महादेव की अर्धांगिनी सति बन गयीं पूरे विधि-विधान से।

साथ पा के सर्वगुण -सम्पन्न सति का, शिव का अधूरा जीवन खुशियों और रंगों से भर गया,

पर विपदा आ गयी तब जब ससुर की खरी-खोटी बातों से उत्तेजित हो भोलेनाथ का मन खिन्न हो गया।

प्रेमपाश में कैद पतिव्रत्ता स्त्री सति से यह वाद-विवाद का प्रसंग जब सहन ना हुआ ,

योगाग्नि से खुद को भस्म कर के अद्वित्तीय प्रेम और त्याग का उदहारण पेश कर दिया ।

दुखी हो गया भोले-भाले से भोलेनाथ का निश्छल मन ,

सर्वदा के लिए अपनी सजनी को खो कर वैरागी हो गया प्रेम में मतवाला उसका साजन।

अपने विचलित मन को शांत करने के प्रयोजन से सति की आखिरी निशानी को तब शंकर जी ने धारण कर लिया,

उनके होम हुए तन की भभूती को तिलक लगा कर ललाट पर अपने सुस्सजित कर लिया।

पर प्रेम अधूरा जो रह गया था , साकार एक दिन उसे होना ही था,

इस अपूर्ण उद्देश्य को साकार करने हेतु ,

माता पार्वती के रूप में पुनः सति का अवतरण धरती पर हुआ।

ह्रदय में विद्यमान प्रेम का ऐसा जादू माता पार्वती पे चल गया ,

एक नज़र में ही भोले भण्डारी पर उन्होंने अपना मन हार दिया ।

निमंत्रण दिया तब पार्वती जी की अहंकारी माँ मैना देवी ने शिवजी को,

मोह माया से अनभिज्ञ भोले भंडारी भी पहुँच गए द्वारे वरने अपनी सजनी को।  

माँगा जब कैलाशवासी से प्रिय वस्तु का दान वहां उपस्थित मेहमानों ने ,

सरल भाव से आलिंगन करता अपना सर्प उतार कर दे दिया उन्होनें प्रेम स्वरुप भेंट में।

शिव का ऐसा वेश और व्यवहार देख के रुष्ट हो गयीं मैना देवी ,दृण संकल्प उन्होंने कर लिया ,

कि नाज़-नखरों से पली,अपनी फूल सी बिटिया पर कोई आंच ना कभी आने देंगी

अपनी राजकुमारी को एक जोगी के संग पर्वतों की गुफाओं में भटकने को ना छोड़ देंगी।

तब शिव जी ने विवश हो कर एक परमप्रतापी राजा का रूप धारण किया,

पार्वती के प्रेम की खातिर और मैना देवी को रिझाने हेतु सन्यासी रूप त्याग दिया।

मैना देवी ने मोहित होकर मनोहर रूप से शिवजी के अंततः अपना मन और इरादा बदल लिया,

याचना कर शिव शंकर से , प्रेम पूर्वक उन्हें अपने दामाद के रूप में स्वीकार कर लिया।

तद्पश्चात शिव-पार्वती का विवाह विधिवत संपन्न हो गया,

अनोखे इस बंधन के गवाह सभी देवी -देवता गण व सम्पूर्ण जगत बन गया।

पालकी सुन्दर सज गयी ,

ढोल नगाड़े संग बाराती नाचते गाते चल दिए,

हिमगिरी ने गौरी के व्याह की लग्न पत्रिका लिखवाई ,

वृतांत जिसका सुन के सभी श्रोता प्रफुल्लित होकर नाचने-गाने-बजाने लगे।

शंखनाद संग हंस सवारी में पधारे ब्रह्मा जी और ऐरावत लेकर आ गए हाथी,

नर मुंडो की एक माला ,बाघाम्बर की खाल ओढ़े ,त्रिशूल हाथ में संभाले ,

सर्प गले में और त्रिलोचन संग दूध का चाँद मस्तक पर सजाये दूल्हा बन पधारे भोले भंडारी।

आगे-आगे शंकर भगवान तो पीछे भूत-प्रेत उनके अनुयायी बन के चले ,

ऐसा मनोहर दृश्य देख के आसमान से फूल ही फूल, दुआओं के संग बरसे।

दाँतों तले उंगली दबा ली सबने,

जब सज-धज के सुन्दर और मनोहारी दुल्हन के रूप में पधारीं माता पार्वती,

प्रेम और पूरे हर्षोल्लास से प्रिय आत्मजा का कन्यादान कर गए हिमगिरि।

गले लगा के प्यारी बिटिया को हिमगिरि-मैना ने भोले शंकर संग विदा कर दिया,

खुशियों की सौगात सदा रहे नव-दांपत्य के संग ,ऐसी मनोकामना कर अपार आशीर्वाद भेंट-स्वरुप दिया।

भागते -दौड़ते घोड़ों , सजी थालों और सुन्दर गीत गाते गए सभी बाराती नयी वधु को संग ले गए ,

कुछ ऐसे अद्भुत ढंग से जन्म -जन्मांतर के लिए शिव-पार्वती सदा के लिए एक दूजे के हो गए।



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