शब्दों के खेत में
शब्दों के खेत में
आओ शब्दों के खेत में
ख़ामोशी को बोए,
तितलियों के पंखों को,
अंर्तमन की आँखों से सहलाएँ,
बीते हुए वक़्त को सहेजे,
वीणा के तारों को मूक
झंकार दें।
और..
कल-कल करती नदी से
उसकी सहजता का,
भेद पूछे,
मन्द-मन्द मुस्काएँ।
लोरी के बोलों को बोए,
सपनों के सिराहने ,
नींद की अठखेलियों से खेलें,
सुबह की लालिमा में जागें,
पक्षियों की चहचहाहट को,
अपने भीतर समेटे,
और,
एक खेत जोतने की तैयारी में,
जुट जाएँ।
आओ शब्दों के खेत में,
ख़ामोशी को बोए,
तितलियों के पंखों को,
सपनों की जादुई छड़ी से,
सहलाएँ.....।
