शायद इसी का नाम मोहब्बत है
शायद इसी का नाम मोहब्बत है
तसव्वुरे-जाना में हम जागते रहे रात भर,
वो बेवफ़ा रक़ीबों के पहलु मे सोते रहे रात भर।
ना वो आए, ना उनका पैग़ाम ही आया,
अब तो ऐतबारे- इश्क भी ना रहा हमें।
ए साक़ी पहले तो तुने मुझे शराबी बना दिया,
जब माँगा मैंने जाम तो प्याला क्यूँ तोड़ दिया।
शौके दीद रखते है हुस्न की,
मगर ये राज़ इफ़्शा (प्रकट)
ना करेंगे कभी सामने उनके।
क्यों हिजृ में शिकवे करता है,
क्यों दर्द मे रोता है ए दिल,
ग़र होंगी हुस्नवालों की मेहरबानियां,
तो आऐंगे इक रोज़ खुद ही।
माना हम पे इश्को-मुहब्बत का सरूर है,
मगर हम है ज़ुबाँ पे ताले लगाए हुए।
ग़र होगा असर हमारी आँहों में तो
संगदिल सनम को भी ख़बर जरूर होगी।
औरों की गज़लों पर लुटाते हैं वो वाहवाही,
ग़र मैंने इक शेर सुनाया तो ख़फ़ा हो गये।
कभी हम भी मिले थे अँधेरी रातों में,
जैसे मिलते हैं ज़मीं-आसमाँ सावन भादो में,
मैंने याद दिलाया तो ख़फ़ा हो गये
ए जनूने आशिकी शुक्रिया तेरा,
क्या-क्या ना वक्त दिखाया तुमने हमें,
शायद इसी का नाम मोहब्बत है।